सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।
सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलि: ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
सर्वम्—यह सब; काल-कृतम्—काल द्वारा किया गया; मन्ये—मैं सोचता हूँ; भवताम् च—तुम्हारे लिए भी; यत्—जो भी; अप्रियम्—अप्रिय; स-पाल:—शासकों समेत; यत्-वशे—उस काल के वशीभूत; लोक:—प्रत्येक लोक में सभी लोग; वायो:—वायु ले जाती है; इव—सदृश; घन-आवलि:—बादलों का समूह ।.
अनुवाद
मेरे विचार से यह सब प्रबल काल के कारण हुआ है, जिसके वशीभूत होकर हर कोई व्यक्ति प्रत्येक लोक में मारा मारा फिरता है, जिस प्रकार वायु द्वारा बादल इधर से उधर ले जाये जाते हैं।
तात्पर्य
इस ब्रह्माण्ड के भीतर सारे अन्तरिक्ष में काल का नियन्त्रण उसी तरह है, जिस प्रकार सारे लोकों में उसका नियंत्रण है। सारे बड़े-बड़े ग्रह, जिनमें सूर्य भी सम्मिलित है, वायु के बल के द्वारा उसी प्रकार नियन्त्रित हैं, जिस प्रकार वायु के वेग से बादल इधर से उधर ले जाये जाते हैं। इसी प्रकार अपरिहार्य काल वायु तथा अन्य तत्त्वों की क्रिया को भी नियन्त्रित करनेवाला है। अतएव प्रत्येक वस्तु सर्वोपरि काल द्वारा नियन्त्रित है, जो इस भौतिक जगत के अन्दर भगवान् का सबसे शक्तिशाली प्रतिनिधि है। अतएव युधिष्ठिर को इस काल की अकल्पनीय क्रिया से दुखी नहीं होना चाहिए। मनुष्य जब तक इस भौतिक संसार की स्थितियों में रहता है, तब तक उसे काल की क्रिया-प्रतिक्रियाओं को सहन करना होता है। युधिष्ठिर को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्होंने पिछले जन्म में पाप किया था, जिसका परिणाम उन्हें भोगना पड़ रहा है। बड़े-से-बड़े पुण्यात्मा को भी भौतिक प्रकृति की दशाओं को भोगना पड़ता है। लेकिन पुण्यात्मा भगवान् के प्रति श्रद्धावान होता है, क्योंकि वह प्रामाणिक ब्राह्मण तथा धर्मात्मा वैष्णव द्वारा निर्देशित होता है। इन तीन पथ-प्रदर्शक सिद्धान्तों को ही जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए। मनुष्य को शाश्वत काल की चालों से विचलित नहीं होना चाहिए। यहाँ तक कि बह्माण्ड के महान नियन्ता, ब्रह्माजी भी काल के वश में हैं, अतएव धार्मिक सिद्धान्तों का असली पालक होने के बावजूद भी मनुष्य को काल द्वारा नियन्त्रित होने के कारण क्षुब्ध नहीं होना चाहिए।
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