यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदर: ।
कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत्कृष्णस्ततो विपत् ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
यत्र—जहाँ; धर्म-सुत:—धर्मराज का पुत्र; राजा—राजा; गदा-पाणि:—हाथ में शक्तिशाली गदा धारण करनेवाला; वृकोदर:—भीम; कृष्ण:—अर्जुन; अस्त्री—अस्त्र धारण करनेवाला; गाण्डिवम्—गाण्डीव को; चापम्—धनुष; सुहृत्— शुभेच्छु; कृष्ण:—भगवान् कृष्ण; तत:—उससे; विपत्—विपत्ति ।.
अनुवाद
ओह, अपरिहार्य काल का प्रभाव कितना आश्चर्यजनक होता है, यह अपरिवर्तनीय है अन्यथा धर्मराज के पुत्र युधिष्ठिर, गदाधारी भीम तथा गाण्डीव अस्त्र धारण करनेवाले बलशाली महान् धनुर्धर अर्जुन एवं सबके ऊपर पाण्डवों के प्रत्यक्ष हितैषी कृष्ण के होते हुए यह विपत्ति क्यों आती?
तात्पर्य
जहाँ तक भौतिक या आध्यात्मिक साधनों की बात थी, पाण्डवों के लिए इनकी कमी न थी। भौतिक दृष्टि से वे अच्छी तरह से सुसज्जित थे, क्योंकि दो महान योद्धा अर्थात् भीम तथा अर्जुन उनके साथ थे। आध्यात्मिक दृष्टि से, राजा स्वयं धर्म के प्रतीक थे और इन सबके ऊपर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हितैषी के रूप में उनके लिए स्वयं चिन्ता करते थे। फिर भी पाण्डवों पर इतनी विपत्तियाँ आईं। पुण्य कर्म की शक्ति, व्यक्तित्वों की शक्ति, कुशल प्रबन्ध क्षमता तथा भगवान् श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष अध्यक्षता में अस्त्र-शक्ति होने पर भी पाण्डवों को अनेक विपत्तियाँ देखनी पड़ीं, जिन्हें अपरिहार्य काल का प्रभाव ही कहा जा सकता है। काल साक्षात् भगवान् से अभिन्न है, अतएव काल का प्रभाव भगवान् की अकथ इच्छा का सूचक है। जब कोई बात किसी मनुष्य के वश के परे हो, तो पछताने से कोई लाभ नहीं।
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