श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  1.9.18 
एष वै भगवान्साक्षादाद्यो नारायण: पुमान् ।
मोहयन्मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
एष:—यह; वै—निश्चय ही; भगवान्—भगवान्; साक्षात्—मूल; आद्य:—प्रथम; नारायण:—परमेश्वर (जल में शयन करनेवाले); पुमान्—परम भोक्ता; मोहयन्—मोहित करनेवाला; मायया—स्वसर्जित शक्ति द्वारा; लोकम्—ग्रहों को; गूढ:—अकल्पनीय; चरति—विचरण करता है; वृष्णिषु—वृष्णिकुल में ।.
 
अनुवाद
 
 ये श्रीकृष्ण अकल्पनीय आदि भगवान् ही हैं। ये प्रथम नारायण अर्थात् परम भोक्ता हैं। लेकिन ये राजा वृष्णि के वंशजों में हमारी ही तरह विचरण कर रहे हैं और हमें स्व-सृजित शक्ति के द्वारा मोहग्रस्त कर रहे हैं।
 
तात्पर्य
 ज्ञान प्राप्त करने की वैदिक पद्धति निगमन की विधि है। वैदिक ज्ञान पूर्ण रूप से अधिकारियों के शिष्य-परम्परा द्वारा प्राप्त किया जाता है। ऐसा ज्ञान कभी मतान्ध नहीं होता, जैसाकि अल्पज्ञों की गलत सोच है। पिता की पहचान की पुष्टि करने की अधिकारिणी माता होती है। ऐसे गुह्य ज्ञान की अधिकारिणी वही होती है। अतएव प्रामाणिक सत्ता का होना रूढि़मूलक नहीं होता। भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय (४.२) में इस सत्य की पुष्टि की गई है और बताया गया है कि विद्या की सम्यक् पद्धति उसे प्राधिकारी से प्राप्त करने में है। इसी पद्धति को विश्वव्यापी सत्य के रूप में स्वीकार किया जाता है, लेकिन व्यर्थ तर्क करनेवाला ही इसके विपरीत बोलता है। उदाहरणार्थ, आधुनिक अन्तरिक्ष यान आकाश में उड़ते हैं और जब वैज्ञानिक यह कहते हैं कि वे चन्द्रमा के दूसरी ओर यात्रा करते हैं, तो लोग इन कथाओं को आँख मूँदकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि उन्होंने आधुनिक विज्ञानियों को प्रमाण (अधिकारी) के रूप में स्वीकार कर लिया है। अधिकारी जो कुछ बोलते हैं, सामान्य जन उस पर विश्वास कर लेते हैं। लेकिन वैदिक सत्यों के विषय में उन्हें विश्वास न करने की शिक्षा दी जाती है। यदि वे उसे स्वीकार करते भी हैं, तो वे उसकी भिन्न प्रकार से व्याख्या करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति वैदिक ज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति करना चाहता है, लेकिन मूर्खतावश वह इससे इनकार करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि गुमराह व्यक्ति जिस एक प्रमाण पर विश्वास कर सकता है, वह है विज्ञानी, किन्तु वह वेदों के प्रमाण को अस्वीकार कर देता है। इसी का परिणाम यह है कि लोगों का पतन हुआ है।

यहाँ पर एक अधिकारी व्यक्ति श्रीकृष्ण को आदि भगवान् तथा प्रथम नारायण बताया गया है। आचार्य शंकर जैसे निर्विशेषवादी ने भी भगवद्गीता के अपने भाष्य के प्रारम्भ में कहा है कि भगवान् नारायण भौतिक सृष्टि से परे हैं। *यह ब्रह्माण्ड एक भौतिक सृष्टि है, किन्तु नारायण ऐसी भौतिक साज-सज्जा से परे हैं।

भीष्मदेव उन बारह महाजनों में से एक हैं, जो दिव्य ज्ञान के सिद्धान्तों को जानते हैं। श्रीकृष्ण को आदि भगवान् कहे जाने की उनके द्वारा की गई पुष्टि की निर्विशेषवादी शंकर के द्वारा भी परिपुष्टि हुई है। अन्य सारे आचार्यों ने भी इस कथन की पुष्टि की है। अतएव श्रीकृष्ण को आदि भगवान् के रूप में स्वीकार न करने की कोई सम्भावना रह जाती है। भीष्म-देव कहते हैं कि वे प्रथम नारायण हैं। इसकी पुष्टि भागवत (१०.१४.१४) में ब्रह्माजी द्वारा भी की गई है। कृष्ण प्रथम नारायण हैं। आध्यात्मिक जगत् (वैकुण्ठ) में असंख्य नारायण हैं और वे सभी एक ही भगवान् हैं और ये आदि भगवान् श्रीकृष्ण के पूर्ण विस्तार माने जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम विस्तार बलदेव के रूप में होता है और बलदेव अनेक अन्य रूपों में, यथा—संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, वासुदेव, नारायण, पुरुष, राम तथा नृसिंह में—विस्तार करते हैं। ये सारे विस्तार एक ही विष्णु तत्त्व हैं और श्रीकृष्ण इन समस्त पूर्ण अंशों के आदि स्रोत हैं। अतएव वे प्रत्यक्ष भगवान् हैं। वे भौतिक जगत के सृष्टा हैं और नारायण रूप में विख्यात समस्त वैकुण्ठ ग्रहों के अधिष्ठाता देव हैं। अतएव मनुष्यों के बीच में उनका विचरण करना एक अन्य प्रकार का मोह है। अत: भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि मूर्ख लोग उनकी गतिविधियों की जटिलताओं को जाने बिना उन्हें मनुष्यों में से एक मान बैठते हैं।

श्रीकृष्ण के विषय में मोह का कारण उनकी अन्तरंगा तथा बहिरंगा नाम की दो शक्तियों का, तटस्था नामक एक तीसरी शक्ति पर, प्रभाव है। जीव उनकी तटस्था शक्ति के विस्तार (अंश) हैं। अतएव वे कभी अन्तरंगा शक्ति द्वारा मोहग्रस्त होते हैं, तो कभी बहिरंगा शक्ति द्वारा। अपनी अन्तरंगा शक्ति के मोह से श्रीकृष्ण असंख्य नारायणों में अपना विस्तार करते हैं और दिव्य लोक में जीवों से दिव्य सेवा का आदान-प्रदान स्वीकार करते हैं। और अपनी बहिरंगा शक्ति के विस्तार से वे भौतिक जगत में मनुष्यों, पशुओं या देवताओं के मध्य विभिन्न योनियों में जीवों के साथ विस्मृत सम्बन्ध की पुन: स्थापना के लिए अवतरित होते हैं। किन्तु भीष्म जैसे महाजन भगवत्कृपा से उनके मोह से बच जाते हैं।

* नारायण: परोऽव्यक्ताद् अण्डमव्यक्तसम्भवम्।

अण्डस्यान्तस्त्विमे लोका: सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥

(भगवद्गीता, शंकरभाष्य)

 
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