स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां
कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लस-
न्मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुज: ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
स:—वे; देव-देव:—देवताओं के भी देवता, प्रभुओं में श्रेष्ठ; भगवान्—भगवान्; प्रतीक्षताम्—कृपया प्रतीक्षा करें; कलेवरम्—शरीर को; यावत्—जब तक; इदम्—इस; हिनोमि—त्याग दूँ; अहम्—मैं; प्रसन्न—प्रसन्न; हास—हँसते हुए; अरुण-लोचन—प्रात:कालीन सूर्य के समान लाल नेत्र; उल्लसत्—सुन्दर ढंग से सजाये; मुख-अम्बुज:—कमल के समान उनका मुख; ध्यान-पथ:—मेरे ध्यान के मार्ग में; चतुर्-भुज:—चार भुजाओंवाले नारायण (भीष्मदेव द्वारा आराध्य देव) ।.
अनुवाद
चतुर्भुज-रूप, उगते सूर्य की भाँति अरुणनेत्रों तथा सुन्दर रीति से सजाये, मुस्कराते कमलमुख वाले मेरे भगवान्, आप उस क्षण तक यहीं मेरी प्रतीक्षा करें, जब तक मैं अपना यह भौतिक शरीर छोड़ न दूँ।
तात्पर्य
भीष्मदेव अच्छी तरह जानते थे कि भगवान् कृष्ण आदि नारायण हैं। उनके आराध्यदेव चतुर्भुज नारायण थे, लेकिन वे यह जानते थे कि ये चतुर्भुज नारायण भगवान् कृष्ण के पूर्ण अंश हैं। परोक्ष रूप में उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने चतुर्भुज नारायण रूप में प्रकट हों। वैष्णव सदा ही अपने आचरण में विनीत होता है। यद्यपि यह शत-प्रतिशत निश्चित था कि इस शरीर को त्याग कर भीष्मदेव वैकुण्ठलोक जा रहे हैं, तो भी विनीत वैष्णव के रूप में उन्होंने भगवान् की सुन्दर मुखाकृति देखनी चाही, क्योंकि उन्होंने सोचा कि कहीं इस शरीर को छोडऩे के बाद वे भगवान् का दर्शन न भी कर पाएँ। वैष्णव को कभी गर्व नहीं होता, यद्यपि भगवान् अपने भक्तों को अपने धाम में प्रवेश करने की गारंटी देते हैं। यहाँ पर भीष्मदेव कहते हैं, “जब तक मैं अपना शरीर त्याग न दूँ।” इसका अर्थ यह है कि यह महान सेनापति अपनी इच्छा से शरीर-त्याग करेंगे; वे प्रकृति द्वारा बाध्य नहीं हैं। वे इतने शक्तिशाली थे कि वे जब तक चाहते, अपने शरीर में बने रह सकते थे। यह वर उन्हें अपने पिता से प्राप्त हुआ था। उनकी इच्छा थी कि भगवान् अपने चतुर्भुज नारायमण रूप में उनके समक्ष रहें, जिससे वे उनका ध्यान कर सकें और समाधि दशा को प्राप्त हो लें। तब उनका मन भगवान् का चिन्तन करके पवित्र हो जाय। फिर वे कहीं भी जाँए, इसकी उन्हें परवाह नहीं रहेगी। एक शुद्ध भक्त भगवद्धाम वापस जाने के लिए कभी भी चिन्तित नहीं रहता। वह तो भगवान् की इच्छा पर पूर्णत: आश्रित रहता है। यदि भगवान् उसे नरक भी भेजना चाहें, तो भी वह समान रूप से तुष्ट होता है। शुद्ध भक्त की तो एक ही इच्छा रहती है कि वह सदा भगवान् के चरणकमलों का चिन्तन करता रहे। भीष्मदेव की इतनी ही इच्छा थी कि उनका मन भगवान् के चिन्तन में लीन रहे और वे इसी तरह चल बसें। शुद्ध भक्त की सर्वोच्च अभिलाषा यही होती है।
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