सूत गोस्वामी ने कहा : भीष्मदेव को इस प्रकार आग्रहपूर्ण स्वर में बोलते देखकर, महाराज युधिष्ठिर ने समस्त महर्षियों की उपस्थिति में उनसे विभिन्न धार्मिक कृत्यों के अनिवार्य सिद्धान्त पूछे।
तात्पर्य
भीष्मदेव को आग्रहपूर्ण स्वर में बोलते देखकर महाराज युधिष्ठिर समझ गये कि वे शीघ्र ही प्रयाण करनेवाले हैं। अतएव भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को प्रेरित किया कि वे धर्म के सिद्धान्तों के बारे में उनसे पूछें। भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को प्रेरित किया कि वे अनेक महर्षियों की उपस्थिति में भीष्मदेव से प्रश्न पूछें, जिससे यह संकेत मिलता है कि यद्यपि भीष्मदेव जैसा भगवद्भक्त सामान्य पुरुष की भाँति रहता है, किन्तु बड़े-बड़े मुनियों से, यहाँ तक कि व्यासदेव से भी कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। दूसरी बात यह है कि भीष्मदेव उस समय न केवल शर-शय्या पर लेटे थे, अपितु अपनी इस अवस्था के कारण वे अत्यन्त कष्टमय स्थिति में थे। ऐसी अवस्था में उनसे प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिए थे, लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनके शुद्ध भक्त सदैव आध्यात्मिक प्रकाश के कारण शरीर तथा मन से पूर्णरूपेण स्वस्थ रहते हैं, अतएव भगवद्भक्त किसी भी अवस्था में रहकर जीवन की सही दिशा बताने में समर्थ होता है। युधिष्ठिर भी चाहते थे कि वहाँ पर उपस्थित व्यक्तियों से, जो भीष्मदेव से भी अधिक विद्वान लगते थे, उनसे न पूछ करके अपनी समस्याओं का समाधान भीष्मदेव से करें। यह सब चक्रधारी श्रीकृष्ण की योजना थी, क्योंकि वे अपने भक्त की महिमा को संस्थापित करना चाहते हैं। पिता चाहता है कि उसका पुत्र उसकी अपेक्षा अधिक प्रख्यात बने। भगवान् जोर देकर घोषित करते हैं कि उनके भक्तों की पूजा उनकी खुद की पूजा से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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