दान देना गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य है और उसे अपनी कठिन कमाई का कम से कम पचास प्रतिशत हिस्सा दान में देने के लिए तैयार रहना चाहिए। ब्रह्मचारी को यज्ञ करने चाहिए, गृहस्थ को दान देना चाहिए और वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम वाले व्यक्ति को तपस्या करनी चाहिए। समस्त आश्रमों अथवा आत्म-साक्षात्कार के पथ पर जीवन के समस्त आश्रमों के लिए ये ही सामान्य कर्तव्य हैं। ब्रह्मचर्य जीवन में काफी प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे मनुष्य यह समझ ले कि यह संसाररूपी सम्पत्ति भगवान् की है। अतएव कोई भी व्यक्ति संसार की किसी वस्तु का स्वामी होने का दावा नहीं कर सकता। अत: गृहस्थ जीवन, जिसमें विषय भोग के लिये एक प्रकार की छूट है, उसमें मनुष्य को भगवान् की सेवा के निमित्त दान देना चाहिए। भगवान् की शक्ति के भण्डार से ही शक्ति उत्पन्न होती है, जो प्रत्येक को प्रदान की जाती है। अतएव ऐसी शक्ति के द्वारा किए गए कार्यों को भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा के रूप में अर्पित करना चाहिए। जिस प्रकार नदियाँ सागर से बादलों के माध्यम से जल प्राप्त करती हैं और पुन: समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हमारी शक्ति भगवान् की शक्ति के सर्वोपरि स्रोत से प्राप्त होती है और हमें इसे भगवान् को लौटाना होता है। हमारी शक्ति की पूर्णता इसी में है। अत: भगवद्गीता (९.२७) में भगवान् कहते हैं कि हम जो भी करते हैं, जो भी तपस्या करते हैं, जो भी यज्ञ करते हैं, जो भी खाते या दान देते हैं, वह सब उन्हें (भगवान् को) ही अर्पित किया जाना चाहिए। उधार ली गई अपनी शक्ति के उपयोग की यही विधि है। जब हम इस विधि से शक्ति का उपयोग करते हैं, तब हमारी शक्ति भौतिक उन्माद के कल्मष से रहित हो जाती है और इस प्रकार हम भगवान् की सेवा करने के लिये अपने मूल प्राकृतिक जीवन के योग्य बन जाते हैं। राज-धर्म, राजनीतिक श्रेष्ठता के लिये आधुनिक कूटनीति से भिन्न, एक महान विज्ञान है। राजाओं को केवल कर संग्राहक बनने के बजाय दानवीर बनने की विधिपूर्वक शिक्षा दी जाती थी। उन्हें अपनी प्रजा की सम्पन्नता के लिए ही यज्ञ करने की शिक्षा दी जाती थी। प्रजा को मोक्ष प्राप्त कराना राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य था। पिता, गुरु तथा राजा को कभी भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि से प्रजा को मुक्ति प्राप्त कराने के मार्ग पर लापरवाह नहीं होना चाहिये। जब ये प्राथमिक कर्तव्य सही ढंग से सम्पन्न हो जाते हैं, तो फिर जनता द्वारा, जनता के लिए बनाई गई सरकार की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आजकल लोग छद्म से बटोरे गये मतों के बल पर शासन-अधिकार पा तो लेते हैं, लेकिन उन्हें राजा के मूल कर्तव्यों का प्रशिक्षण कभी नहीं मिलता और हर एक के लिये ऐसा कर पाना सम्भव भी नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में अप्रशिक्षित प्रशासक प्रजा को सभी प्रकार से सुखी बनाने के प्रयत्न में कहर ढाता है। दूसरी ओर, ये अप्रशिक्षित प्रशासक धीरे-धीरे चोर तथा धूर्त बन जाते हैं और डांवाडोल राज्य पर करों में वृद्धि करते जाते हैं, जिससे प्रशासन के लिये धन प्राप्त हो, जो सभी प्रयोजनों के लिए व्यर्थ होता है। वास्तव में मनुसंहिता तथा पराशर कृत धर्मशास्त्र जैसे शास्त्रों के अनुसार राजा को समुचित प्रशासनिक निर्देश देने के लिए, योग्यता-प्राप्त ब्राह्मण ठीक माने गये हैं। एक गुणवान राजा जनता का आदर्श होता है, अत: यदि राजा पुण्यात्मा, धर्मात्मा, शौर्यवान तथा दानवीर होता है, तो जनता भी सामान्य रूप से उसका अनुकरण करती है। ऐसा राजा आलसी, विषयी व्यक्ति नहीं होता, जो प्रजा पर आश्रित रहता हो, अपितु चोरों तथा डाकुओं का वध करने में सदैव सतर्क रहता है। पुण्यात्मा राजा कभी भी व्यर्थ की अहिंसा के नाम पर डाकुओं तथा चोरों पर दया नहीं किया करते थे। डाकुओं तथा चोरों को इस प्रकार दण्डित किया जाता था कि भविष्य में कोई सुनियोजित ढंग से ऐसे दुष्कर्म करने का साहस भी न करे। आज की तरह ऐसे डाकू तथा चोर कभी भी प्रशासन चलाने के लिये नहीं होते थे।
तब कर लगाने के नियम सरल थे। न तो कोई जबरदस्ती की जाती थी, न घुसपैठ। राजा को प्रजा की उपज का एक चौथाई लेने का अधिकार था। राजा को किसी को प्राप्त सम्पदा का एक चौथाई पर हक जताने का अधिकार था। किसी को इतना देने में कोई एतराज भी नहीं था, क्योंकि राजा के पुण्यात्मा होने तथा धार्मिक एकता होने के कारण प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा होती थी—यथा अन्न, फल, फूल, रेशम, कपास, दूध, हीरे-जवाहरात, खनिज इत्यादि; अतएव कोई भी भौतिकता की दृष्टि से असंतुष्ट नहीं रहता था। प्रजा कृषि तथा पशु-धन में समृद्ध थी। अतएव उसके पास प्रचुर अन्न, फल तथा दूध था और उन्हें साबुन, सौंदर्य प्रसाधन, सिनेमा तथा मदिरालयों की कोई कृत्रिम आवश्यकता न थी।
राजा को यह देखना होता था कि मानवता की संचित शक्ति का सही ढंग से उपयोग हो रहा है। मानव शक्ति पशु जैसी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु आत्म-साक्षात्कार के लिए होती है। सरकार की सारी योजना इस विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए होती थी। फल:स्वरूप राजा को उचित रीति से मन्त्रियों का चयन करना होता था, मतों की पृष्ठभूमि के बल पर नहीं।
मन्त्री, सेनानायक तथा सामान्य सिपाही तक व्यक्तिगत योग्यताओं के आधार पर चुने जाते थे और अपने-अपने पदों पर नियुक्त होने के पूर्व राजा उन पर समुचित निगरानी रखता था। राजा विशेष रूप से सतर्क रहता था कि ऐसे तपस्वी छूटें नहीं, जिन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में अपना सब कुछ त्याग कर दिया हो। राजा भलीभाँति जानता था कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कभी भी अपने अनन्य भक्तों का तिरस्कार सहन नहीं करते। यहाँ तक कि ऐसे तपस्वी उन चोर-उचक्कों के भी विश्वस्त जन-नायक होते थे, जो इन तपस्वियों की आज्ञाओं का कभी उल्लंघन नहीं करते थे। राजा निरक्षरों, असहायों तथा विधवाओं को विशेष सुरक्षा प्रदान करता था। शत्रु द्वारा आक्रमण किये जाने के पूर्व रक्षा के सारे उपाय किये जाते थे। कर-प्रणाली सरल थी और इसका उद्देश्य संचित कोष को बढ़ाना होता था, लोगों को लूटना नहीं। सैनिकों की भर्ती सारे विश्व भर से की जाती थी और उन्हें विशेष कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया जाता था।
जहाँ तक मोक्ष का सम्बन्ध है, मनुष्यों को काम, क्रोध, अवैध इच्छाओं, लोभ तथा मोह पर विजय प्राप्त करनी होती थी। क्रोध पर विजय पाने के लिए मनुष्य को क्षमा करना सीखना चाहिए। अवैध इच्छाओं से मुक्त रहने के लिए आवश्यक है कि व्यर्थ की योजनाएँ न बनाई जाँय। आध्यात्मिक अनुशीलन द्वारा नींद पर विजय प्राप्त की जा सकती है। सहिष्णुता द्वारा इच्छाओं तथा लोभ पर विजय पाई जा सकती है। नियमित एवं संतुलित आहार द्वारा विभिन्न रोगों से होनेवाली गड़बडिय़ों से बचा जा सकता है। आत्म-संयम से झूठी आशाओं से मुक्त हुआ जा सकता है और कुसंगति से बचकर धन-संग्रह किया जा सकता है। योगाभ्यास से भूख पर नियन्त्रण किया जा सकता है और नश्वरता का ज्ञान होने से सांसारिकता से बचा जा सकता है। जल्दी उठने से आलस्य को जीता जा सकता है और तथ्यों के निर्धारण से झूठे तर्क समाप्त किये जा सकते हैं। वाचालता को गंभीरता से तथा मौन द्वारा और भय को पराक्रम से जीता जा सकता है। स्वाध्याय द्वारा पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है। मनुष्य को काम, लोभ, क्रोध, स्वप्न इत्यादि से मुक्त होना चाहिए, जिससे असली मोक्ष-मार्ग प्राप्त हो सके।
जहाँ तक स्त्री-वर्ग का सम्बन्ध है, स्त्रियाँ मनुष्यों की प्रेरणा स्रोत मानी जाती रही हैं। इस तरह वे मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होती हैं। पराक्रमी जुलियस सीजर क्लीयोपैत्रा के वश में हो गया था। ऐसी शक्तिशाली स्त्रियाँ लज्जा द्वारा नियन्त्रित होती हैं। अतएव लज्जा स्त्रियों के लिए महत्त्वपूर्ण है। एक बार इस सुरक्षा वाल्व पर से नियंत्रण ढीला पड़ा, तो व्यभिचार द्वारा समाज में उत्पात उठ खड़ा होता है। व्यभिचार का अर्थ है वर्ण-संकर अर्थात् अवांछित बालकों की उत्पत्ति, जिससे विश्व में गड़बडी फैल जाती है।
भीष्मदेव की अन्तिम शिक्षा भगवान् को प्रसन्न करने की विधि के विषय में थी। हम सब भगवान् के सनातन दास हैं और जब हम अपने स्वभाव के इस महत्त्वपूर्ण तत्त्व को भूल जाते हैं, तो हमें जीवन की भौतिक अवस्था में आना पड़ता है। भगवान् को प्रसन्न करने की (विशेष रूप से गृहस्थों के लिए) सरल विधि है घर में भगवान् का अर्चाविग्रह स्थापित किया जाय। अर्चाविग्रह में चित्त एकाग्र करके दैनिक कार्य किये जा सकते हैं। घर में अर्चाविग्रह की पूजा, भक्त की सेवा, श्रीमद्भागवत का श्रवण, पवित्र तीर्थस्थान में वास तथा भगवन्नाम का कीर्तन—ये सब बिना व्यय के हो सकने वाले कार्य हैं, जिनसे भगवान् को प्रसन्न किया जा सकता है। इस प्रकार यह विषय पितामह द्वारा अपने पौत्रों को समझाया गया।