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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  1.9.29 
धर्मं प्रवदतस्तस्य स काल: प्रत्युपस्थित: ।
यो योगिनश्छन्दमृत्योर्वाञ्छितस्तूत्तरायण: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
धर्मम्—वृत्तिपरक कार्यों को; प्रवदत:—वर्णन करते हुए; तस्य—उसका; स:—वह; काल:—समय; प्रत्युपस्थित:— प्रकट हुआ; य:—जो है; योगिन:—योगियों के लिए; छन्द-मृत्यो:—इच्छित समय में मृत्यु करनेवाले का; वाञ्छित:—के द्वारा इच्छित; तु—लेकिन; उत्तरायण:—वह अवधि, जब सूर्य उत्तरी क्षितिज पर रहता है ।.
 
अनुवाद
 
 जब भीष्मदेव वृत्तिपरक कर्तव्यों का वर्णन कर रहे थे, तभी सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर चला गया। इच्छानुसार मरनेवाले योगी इसी अवधि की कामना करते हैं।
 
तात्पर्य
 सिद्ध योगी अपनी इच्छानुसार उपयुक्त समय में भौतिक शरीर त्याग कर, इच्छित लोक को जा सकते हैं। भगवद्गीता (८.२४) में कहा गया है कि स्वरूप-सिद्ध आत्माएं, जिन्होंने परमेश्वर के हित को ही सब कुछ मान रखा है, सामान्य रूप से अग्निदेव के तेज के समय तथा जब सूर्य उत्तरायण होता है, तभी अपना शरीर त्याग करते हैं और इस प्रकार दिव्य आकाश प्राप्त कर सकते हैं। वेदों में ऐसे काल को शरीर-त्याग के लिए शुभ माना जाता है और सिद्ध योगी इसका लाभ उठाते हैं। योग की सिद्धि का अर्थ है ऐसी श्रेष्ठ मानसिक अवस्था प्राप्त करना, जिससे इच्छानुसार शरीर का त्याग किया जा सके। योगी किसी भी लोक में किसी भौतिक यान के बिना तुरन्त ही पहुँच सकते हैं। योगी ऊँचे से ऊँचे लोकों में अल्प समय में पहुँच सकते हैं, लेकिन भौतिकतावादी के लिए ऐसा कर पाना असम्भव है। यदि किसी उच्चतम लोक तक पहुँचने का प्रयास किया भी जाय, तो लाखों मील प्रति घण्टे की गति होने पर भी वहाँ तक पहुँचने में लाखों वर्ष लग जाएँगे। यह एक भिन्न विज्ञान है और भीष्मदेव इसका सदुपयोग करना जानते थे। वे अपना शरीर छोडऩे के लिए उपयुक्त समय की प्रतीक्षा में थे और तब वह स्वर्णिम अवसर आ पहुँचा, जब वे अपने पौत्र पाण्डवों को उपदेश दे रहे थे। इस प्रकार उन्होंने पूज्य भगवान् श्रीकृष्ण, पुण्यात्मा पाण्डव तथा भगवान् व्यास इत्यादि महर्षियों के समक्ष अपना शरीर त्यागने की तैयारी की।
 
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