विशुद्धया—विशुद्ध; धारणया—ध्यान से; हत-अशुभ:—भौतिक अस्तित्व के अशुभ गुणों को जिसने कम कर दिया है; तत्—उसको; ईक्षया—देखने से; एव—केवल; आशु—तुरन्त; गता—गये हुए; युध—तीरों से; श्रम:—थकान; निवृत्त—रोका जाकर; सर्व—समस्त; इन्द्रिय—इन्द्रियों के; वृत्ति—कार्यकलाप; विभ्रम:—लिप्त होकर; तुष्टाव—उसने प्रार्थना की; जन्यम्—भौतिक आश्रय; विसृजन्—त्यागते हुए; जनार्दनम्—जीवों के नियन्ता को ।.
अनुवाद
शुद्ध ध्यान द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण को देखते हुए, वे तुरन्त समस्त भौतिक अशुभ अवस्थाओं से और तीरों के घाव से होनेवाली शारीरिक पीड़ा से मुक्त हो गये। इस प्रकार उनकी सारी इन्द्रियों के कार्यकलाप रूक गये और उन्होंने शरीर को त्यागते हुए समस्त जीवों के नियन्ता की दिव्य भाव से स्तुति की।
तात्पर्य
यह भौतिक शरीर उस भौतिक शक्ति का उपहार है, जिसे माया कहते हैं। भगवान् के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को भूल जाने के कारण मनुष्य भौतिक शरीर को अपना स्वरूप समझने लगता है। भीष्मदेव जैसे भगवान् के शुद्ध भक्त के लिए यह माया भगवान् के आते ही दूर हो गई। भगवान् कृष्ण सूर्य के समान हैं और भ्रामक बहिरंगा भौतिक शक्ति अंधकार तुल्य है। सूर्य की उपस्थिति में यह सम्भव नहीं कि अंधकार टिक सके। अतएव भगवान् कृष्ण का आगमन होते ही सारा भौतिक कल्मष पूर्ण रूप से दूर हो गया और भीष्मदेव पदार्थ के साथ अशुद्ध इन्द्रियाँ के कार्यों को रोककर दिव्य पद को प्राप्त होने में समर्थ हो सके। आत्मा मूलत: शुद्ध होता है और इसीलिए इन्द्रियाँ भी शुद्ध ही होती हैं। भौतिक कल्मष से ही इन्द्रियाँ अपूर्णता तथा अशुद्धता से काम करने लगती हैं। किन्तु परम शुद्ध भगवान् कृष्ण का संसर्ग प्राप्त होते ही इन्द्रियाँ पुन: भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाती हैं। भीष्मदेव को अपना शरीर त्यागने के पूर्व भगवान् की उपस्थिति के कारण ही ऐसी दिव्य अवस्था प्राप्त हो सकी थी। भगवान् सभी जीवों के नियन्ता उपकारी हैं। समस्त वेदों का यही निर्णय है। वे परम शाश्वत तथा समस्त शाश्वत जीवों में परम पुरुष हैं।* तथा वे ही सभी प्रकार के जीवों की सारी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले हैं। इस प्रकार उन्होंने अपने परम भक्त श्रीभीष्मदेव की दिव्य इच्छाओं को पूरा करने की सारी सुविधाएँ प्रदान कीं। तब भीष्मदेव ने इस प्रकार प्रार्थना की।
* नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्।
एको बहूनां यो विदधाति कामान् ॥ (कठोपनिषद्)
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