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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.9.32 
श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्‍वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भ‍वप्रवाह: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भीष्म: उवाच—श्री भीष्मदेव ने कहा; इति—इस प्रकार; मति:—सोचना, अनुभव करना तथा चाहना; उपकल्पिता—नियुक्त करना; वितृष्णा—समस्त इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त; भगवति—भगवान् में; सात्वत-पुङ्गवे—भक्तों के नेता में; विभूम्नि—परम; स्व-सुखम्—आत्म-तोष; उपगते—प्राप्त हुए; क्वचित्—कभी-कभी; विहर्तुम्—दिव्य आनन्द से; प्रकृतिम्—भौतिक जगत में; उपेयुषि—स्वीकार करें; यत्-भव—जिनसे सृष्टि; प्रवाह:—बनी है तथा विनष्ट होती है ।.
 
अनुवाद
 
 भीष्मदेव ने कहा : अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था, किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहनेवाले हैं, किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण, इस भौतिक जगत में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सारा भौतिक जगत उन्हीं के द्वारा सृजित है।
 
तात्पर्य
 चूँकि भीष्मदेव एक राजपुरुष, कुरुवंश के मुखिया, महान सेनापति तथा क्षत्रियों के अग्रणी थे, अतएव उनका मन अनेक विषयों में बँटा रहता था और उनका चिन्तन, अनुभूति तथा उनकी इच्छाएँ विभिन्न बातों में लगी रहती थीं। अब शुद्ध भक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से, वे परम पुरुष भगवान् कृष्ण पर ही सारे चिन्तन, अनुभूति तथा इच्छाओं को केन्द्रित करना चाहते थे। यहाँ पर उन्हें (श्रीकृष्ण को) भक्तों के नायक तथा सर्वशक्तिमान कहे गये हैं। यद्यपि भगवान् कृष्ण आदि भगवान् हैं, लेकिन वे अपने शुद्ध भक्तों को भक्तिमय सेवा का वरदान देने के निमित्त इस धरा पर स्वयं अवतरित होते हैं। कभी वे भगवान् कृष्ण के रूप में, जो वे स्वयं हैं और कभी भगवान् चैतन्य के रूप में अवतरित होते हैं। दोनों ही शुद्ध भक्तों के नायक हैं। भगवान् के शुद्ध भक्तों में भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं रहती। अतएव वे सात्वत कहलाते हैं और भगवान् ऐसे सात्वतों में अग्रणी हैं। इसीलिए भीष्मदेव को अन्य कोई इच्छा नहीं हुई। जब तक मनुष्य सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं से शुद्ध नहीं हो लेता, तब तक भगवान् उसके अगुवा नहीं बनते। इच्छाओं को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन उन्हें केवल शुद्ध करना होता है। भगवद्गीता में स्वयं भगवान् ने पुष्टि की है कि वे भगवान् की सेवा में निरन्तर लीन रहनेवाले शुद्ध भक्त को उसके हृदय के भीतर से उपदेश देते हैं। ऐसा उपदेश किसी भौतिक हेतु के लिए नहीं, अपितु अपने घर, भगवान् के धाम वापस जाने के लिए दिया जाता है। (भगवद्गीता, १०.१०) भगवान् सामान्य व्यक्ति के लिए, जो भौतिक प्रकृति पर अपना प्रभुत्व दिखाना चाहता है, न केवल उसकी इच्छा पूर्ति करके उसके कार्यों के साक्षी बनते हैं, अपितु वे अभक्तों को भगवद्धाम जाने के लिए कभी कोई उपदेश नहीं देते। विभिन्न जीवों, भक्तों तथा अभक्तों, के साथ भगवान् के व्यवहार में यही अन्तर है। वे समस्त जीवों के अग्रणी हैं, जिस प्रकार राजा बन्दियों तथा स्वतन्त्र नागरिकों का समान रूप से शासक होता है। लेकिन भक्तों तथा अभक्तों के प्रति उनके व्यवहार भिन्न-भिन्न होते हैं। अभक्त लोग भगवान् से कभी कोई उपदेश ग्रहण करने की परवाह नहीं करते, इसलिए वे उनके विषय में मौन बने रहते हैं, यद्यपि वे उनके सारे कार्यों के साक्षी बनकर उन्हें अच्छा या बुरा फल देते रहते हैं। भक्तगण इस भौतिक अच्छाई बुराई से परे होते हैं। वे अध्यात्म-पथ पर अग्रसर होते रहते हैं, अतएव उन्हें किसी प्रकार की भौतिक इच्छा नहीं रहती। भक्त यह भी जानता है कि श्रीकृष्ण ही आदि नारायण हैं, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने पूर्णांश से कारणोदकशायी विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं, जो सारी भौतिक सृष्टि के मूल स्रोत हैं। भगवान् अपने शुद्ध भक्तों के साथ संगति करने को भी इच्छुक रहते हैं और उन्हीं के लिए वे इस धरा पर अवतार लेकर उन्हें जीवन-दान देते हैं। भगवान् खुद की इच्छा से प्रकट होते हैं। वे प्रकृति की परिस्थितियों से बाध्य नहीं होते। अतएव उन्हें विभु या सर्व-शक्तिमान कहा गया है, क्योंकि वे प्रकृति के नियमों से कभी नहीं बँधते।
 
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