श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर सहित प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अघोलोक) में हर एक को आकृष्ट करनेवाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दनचर्चित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं किसी प्रकार के फल की इच्छा न करूँ।
तात्पर्य
जब श्रीकृष्ण स्वेच्छा से इस धरा पर प्रकट होते हैं, तो वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के माध्यम से ऐसा करते हैं। उनके दिव्य शरीर के आकर्षक अंगों को देखने की इच्छा तीनों लोकों अर्थात् ग्रह मंण्डल के उच्चस्थ, मध्यस्थ तथा अधोलोको में होती है। ब्रह्माण्ड भर में कहीं भी भगवान् कृष्ण जैसे सुन्दर आकृति के शरीर वाला कोई नहीं है। अतएव उनके दिव्य शरीर को भौतिक रूप से निर्मित किसी वस्तु से कुछ लेनादेना नहीं है। अर्जुन को यहाँ विजेता कहा गया है और कृष्ण को उसके घनिष्ठ मित्र। कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद शरशय्या पर लेटे भीष्मदेव भगवान् कृष्ण की वेशभूषा का स्मरण कर रहे हैं जिसे वे अर्जुन के सारथी रूप में धारण किए हुए थे। जब अर्जुन तथा भीष्म के मध्य युद्ध चल रहा था, तो भीष्म का ध्यान कृष्ण की चमचमाती वेश-भूषा की ओर आकर्षित हुआ था और इस तरह वे अप्रत्यक्ष रूप में अपने तथाकथित शत्रु अर्जुन की प्रशंसा, कृष्ण को अपने मित्र रूप में प्राप्त करने के लिए कर रहे थे। अर्जुन सदा ही विजेता रहा क्योंकि भगवान् उसके सखा थे। भीष्मदेव इस अवसर का लाभ भगवान् को विजय-सखे (अर्जुन के मित्र) सम्बोधित करके उठाते हैं, क्योंकि जब भगवान् को उनके भक्तों के साथ जोडक़र पुकारा जाता है, तो वे अतीव प्रसन्न होते हैं, क्योंकि भक्तगण उनसे विभिन्न दिव्य रसों से बँधे हुए होते हैं। जब कृष्ण अर्जुन के सारथी थे, तो सूर्य की किरणें भगवान् के वस्त्रों पर पडक़र चमक रही थीं और ऐसी किरणों के परावर्तन से उत्पन्न सुन्दर रंग भीष्मदेव से भुलाये भी नहीं भूल रहा था। योद्धा के रूप में वे वीर रस में कृष्ण से अपने सम्बन्ध का आस्वाद कर रहे थे। विभिन्न रसों में किसी भी रस में भगवान् के साथ दिव्य सम्बन्ध होने पर भक्त सर्वाधिक आनन्द प्राप्त करते हैं। अल्पज्ञ संसारी लोग जो भगवान् के दिव्य रूप में अपने को सम्बन्धित दिखाना चाहते हैं, वे सीधे ही व्रजधाम की गोपियों का अनुकरण करते हुए माधुर्य रस का दिखावा करते हैं। भगवान् के साथ ऐसा हल्का प्रेम-सम्बन्ध संसारी व्यक्ति की कुत्सित भावना का द्योतक है, क्योंकि जिसने भगवान् के साथ माधुर्य रस का आनन्द उठा लिया है, वह संसारी शृंगार रस में लिप्त नहीं होता, क्योंकि इसकी भर्त्सना संसारी नीतिशास्त्र ने भी की है। भगवान् के साथ आत्म-विशेष का नित्य सम्बन्ध क्रमानुसार विकसित होता है। परमेश्वर के साथ जीव का सही सम्बन्ध पाँच प्रमुख रसों में से किसी एक में हो सकता है और असली भक्त के लिए इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। भीष्मदेव इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। तो हमें ध्यान देकर यह समझना है कि वे महान सेनानायक भगवान् से किस प्रकार दिव्य रूप से जुड़े हुए हैं।
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