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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  1.9.37 
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा-
मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थ: ।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु-
र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीय: ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
स्व-निगमम्—अपनी सत्यनिष्ठा; अपहाय—निरस्त करने के लिए; मत्-प्रतिज्ञाम्—मेरी प्रतिज्ञा; ऋतम्—वास्तविक; अधि—अधिक; कर्तुम्—करने के लिए; अवप्लुत:—नीचे उतरते हुए; रथ-स्थ:—रथ से; धृत—ग्रहण करके; रथ— रथ; चरण:—पहिया, चक्र; अभ्ययात्—तेजी से चले; चलद्गु:—पृथ्वी को पद-दलित करते; हरि:—सिंह; इव— सदृश; हन्तुम्—मारने के लिए; इभम्—हाथी को; गत—एक ओर छोडक़र; उत्तरीय:—उत्तरीय, ओढऩे का वस्त्र, दुपट्टा ।.
 
अनुवाद
 
 मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोडक़र, वे रथ से नीचे उतर आये, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस तरह कोई सिंह किसी हाथी को मारने के लिए दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।
 
तात्पर्य
 यद्यपि कुरुक्षेत्र का युद्ध सैन्य-सिद्धान्तों पर लड़ा गया था, लेकिन साथ ही साथ में खेल जैसी भावना भी थी, मानो वह दो मित्रों के बीच होनेवाला युद्ध हो। दुर्योधन ने भीष्मदेव की आलोचना की और दोषारोपण किया कि वे अर्जुन से पितृवत् स्नेह के कारण उसे मारने से हिचकते हैं। एक क्षत्रिय युद्ध के सिद्धान्त पर किया गया अपमान सह नहीं सकता। अत: भीष्मदेव ने प्रतिज्ञा की कि अगले दिन वे पाँचों पाण्डवों का वध अपने विशिष्ट हथियार से कर देंगे। इससे दुर्योधन संतुष्ट हो गया और उसने अपने पास वह तीर ले लिये, जिसे वह अगले दिन युद्ध के समय देगा। लेकिन अर्जुन ने चाल करके दुर्योधन से वे तीर प्राप्त कर लिये और भीष्मदेव को यह समझते देर न लगी कि यह भगवान् कृष्ण की चाल है। अत: भीष्मदेव ने प्रतिज्ञा की कि अगले दिन कृष्ण को अस्त्र उठाना ही पड़ेगा, अन्यथा उनका मित्र अर्जुन मारा जाएगा। दूसरे दिन भीष्मदेव ने इतना भयानक युद्ध किया कि अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही संकट में पड़ गये। अर्जुन लगभग हार ही चुका था; परिस्थिति इतनी नाजुक थी कि वह भीष्मदेव द्वारा अगले ही क्षण मारा जाने वाला था। उस समय भगवान् कृष्ण ने भक्त भीष्म की प्रतिज्ञा को रखकर, उन्हें प्रसन्न करना चाहा, क्योंकि यह उनकी अपनी प्रतिज्ञा से अधिक महत्त्वपूर्ण था। ऊपर से एसा लगता है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी। उन्होंने कुरुक्षेत्र युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व प्रतिज्ञा की थी कि मैं कोई अस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा और किसी भी पक्ष पर अपना बल नहीं आजमाऊँगा। लेकिन अर्जुन की रक्षा करने के लिए वे रथ से उतरे, रथ का पहिया उठाया और क्रुद्ध होकर भीष्मदेव पर तेजी से इस तरह झपटे, जैसे सिंह हाथी को मारने झपटता है। इससे रास्ते में उनका अंगवस्त्र गिर गया और क्रोधवश उन्हें इसका होश तक न रहा कि रास्ते में उनसे क्या गिर गया। तब भीष्म ने तुरन्त हथियार डाल दिये और स्वयं अपने प्रिय प्रभु श्रीकृष्ण द्वारा मारे जाने के लिए खड़े हो गये। उस दिन का युद्ध उसी क्षण समाप्त हो गया और अर्जुन की प्राण-रक्षा हो सकी। निस्सन्देह अर्जुन की मृत्यु की कोई सम्भावना नहीं थी, क्योंकि साक्षात् भगवान् रथारूढ़ थे, लेकिन चूँकि भीष्मदेव चाह रहे थे कि श्रीकृष्ण अपने मित्र को बचाने के लिए हथियार उठाए, अतएव भगवान् ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि अर्जुन की मृत्यु सन्निकट जान पड़ी। वे भीष्मदेव के समक्ष यह दिखाने के लिए खड़े रहे कि भीष्म की प्रतिज्ञा पूरी हो गई और उन्होंने पहिया उठा लिया।
 
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