शितविशिखहतो विशीर्णदंश:
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्द: ॥ ३८ ॥
शब्दार्थ
शित—पैना; विशिख—बाण; हत:—से घायल; विशीर्ण-दंश:—छिन्न हुआ कवच; क्षतज—घावों से; परिप्लुत:—रक्त से सने; आततायिन:—महान आक्रामक; मे—मेरा; प्रसभम्—क्रुद्ध मुद्रा में; अभिससार—चलने लगे; मत्-वध- अर्थम्—मुझे मारने के लिए; स:—वे; भवतु—हो; मे—मेरे; भगवान्—भगवान्; गति:—लक्ष्य; मुकुन्द:—मोक्षदाता ।.
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हों। युद्ध-क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था।
तात्पर्य
कुरुक्षेत्र के युद्ध-क्षेत्र में भगवान् कृष्ण तथा भीष्मदेव के आपसी व्यवहार अत्यन्त रोचक हैं, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण की गतिविधियाँ अर्जुन के प्रति पक्षपातपूर्ण और भीष्म के प्रति शत्रुतापूर्ण लग रही थी, लेकिन वास्तव में यह सब कुछ महान् भक्त भीष्मदेव के प्रति विशेष अनुग्रह दिखाने के लिए था। ऐसे आचरणों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि भक्त शत्रु का अभिनय करते हुए भी भगवान् को प्रसन्न कर सकता है। परम पूर्ण होने के कारण भगवान् अपने भक्त की शत्रु-वेश में भी सेवा ग्रहण कर सकते हैं। परमेश्वर का कोई शत्रु नहीं हो सकता, न ही कोई तथाकथित शत्रु उन्हें हानि पहुँचा सकता है, क्योंकि वे अजित हैं। तो भी उन्हें आनन्द आता है, जब उनका कोई शुद्ध भक्त उन पर शत्रु की भाँति प्रहार करता है या उच्च पद से उनका आलम्भ करता है, यद्यपि उनसे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। भक्त तथा भगवान् के मध्य ये कतिपय दिव्य आदान-प्रदान के व्यवहार हैं। किन्तु जिन्हें शुद्ध भक्ति की कोई जानकारी नहीं है वे ऐसे आचरणों के रहस्य को नहीं जान सकते। भीष्मदेव ने एक वीर योद्धा की भूमिका निभाई और उन्होंने जान-बूझकर भगवान् के शरीर को बाणों से वींध कर दिया, जिससे सामान्य लोगों की दृष्टि में भगवान् घायल प्रतीत तो हुए, लेकिन वास्तव में यह अभक्तों को मोहग्रस्त करने के लिए था। पूर्णत: दिव्य शरीर कभी घायल नहीं किया जा सकता और भक्त कभी भी भगवान् का शत्रु नहीं बन सकता। यदि ऐसा ही होता, तो भीष्मदेव उन्हीं भगवान् को अपने जीवन के अनन्तिम गंतव्य के रूप में न चाहे होते। यदि भीष्मदेव कृष्ण के शत्रु होते, तो कृष्ण बिना हिले-डुले ही उनका विनाश कर देते। उन्हें रक्त से सने घाव लेकर भीष्मदेव के समक्ष आने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन उन्होंने ऐसा किया, क्योंकि यह योद्धा भक्त अपने द्वारा उत्पन्न घावों से सुशोभित भगवान् के दिव्य सौंदर्य का दर्शन करना चाह रहा था। यह है दिव्य-रस के आदान-प्रदान की विधि। ऐसे आचरण से भक्त तथा भगवान् अपने-अपने स्थानों में महिमा-मंडित होते हैं। भगवान् इतने क्रुद्ध थे कि जब वे भीष्मदेव की ओर लपक रहे थे, तो अर्जुन ने उन्हें रोका, लेकिन वे माने नहीं और भीष्मदेव की ओर उसी तरह बढ़े चले जा रहे थे जिस प्रकार एक प्रेमी दूसरे प्रेमी के पास विघ्न-बाधाओं की परवाह न करते हुए बढ़ता जाता है। ऊपरी तौर से उनका संकल्प भीष्मदेव को मारने का था, लेकिन वास्तव में वे अपने महान् भक्त को प्रसन्न करना चाह रहे थे। भगवान् निस्सन्देह समस्त बद्धजीवों के उद्धारक हैं। निर्विशेषवादी उनसे मोक्ष की कामना करते हैं और वे उन्हें मनवांछित फल देते हैं, लेकिन यहाँ तो भीष्मदेव भगवान् के साक्षात् स्वरूप को देखने की इच्छा व्यक्त करते हैं। सारे शुद्ध भक्त ऐसी ही कामना करते हैं।
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