श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  1.9.39 
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे
धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो-
र्यमिह निरीक्ष्य हता गता: स्वरूपम् ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
विजय—अर्जुन; रथ—रथ; कुटुम्बे—जान की बाजी लगाकर जिस वस्तु की रक्षा की जाय; आत्त-तोत्रे—दाहिने हाथ में चाबुक लिए; धृत-हय—घोड़ों की लगाम थामे; रश्मिनि—रस्सियाँ; तत्-श्रिया—सुन्दरतापूर्वक खड़े हुए; ईक्षणीये— देखे जाने के लिए; भगवति—भगवान् में; रति: अस्तु—मेरा आकर्षण हो; मे—मेरा; मुमूर्षो:—मरणासन्न; यम्— जिसको; इह—इस संसार में; निरीक्ष्य—देखने से; हता:—मारे गये; गता:—प्राप्त; स्व-रूपम्—मूल रूप को ।.
 
अनुवाद
 
 मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।
 
तात्पर्य
 भगवान् का शुद्ध भक्त निरन्तर अपने हृदय में भगवान् की उपस्थिति का दर्शन करता है, क्योंकि प्रेममयी सेवा के द्वारा भगवान् से वह दिव्य रूप से सम्बन्धित रहता है। ऐसा शुद्ध भक्त भगवान् को क्षण भर के लिए भी नहीं भूल सकता। यही समाधि है। योगी अपनी इन्द्रियों को अन्य समस्त व्यापारों से हटाकर परमात्मा में एकाग्र करने का प्रयास करता है और इस तरह अन्ततोगत्वा वह समाधि प्राप्त करता है। लेकिन भक्त तो भगवान् के साकार रूप के साथ-साथ उनके नाम, यश, लीलाओं आदि का निरन्तर स्मरण करते हुए, सहज ही समाधि प्राप्त कर लेता है। अतएव योगी तथा भक्त की एकाग्रता एक ही स्तर पर नहीं होती। योगी की एकाग्रता यान्त्रिक होती है, जबकि शुद्ध भक्त की एकाग्रता शुद्ध प्रेममय तथा नैसर्गिक स्नेहयुक्त सहज भाव होता है। भीष्मदेव शुद्ध भक्त थे और सेनानायक के रूप में, वे निरन्तर पार्थ-सारथी के रूप में भगवान् के युद्धक्षेत्र वाले स्वरूप का स्मरण कर रहे थे। अतएव पार्थ-सारथी के रूप में भगवान् की लीला भी शाश्वत है। भगवान् की लीलाएँ, कंस के कारागार में अपने जन्म-काल से लेकर, अंत में मौशल लीला तक, समस्त ब्रह्माण्डों में एक-एक करके उसी प्रकार चक्कर लगाती हैं जिस प्रकार घड़ी की सुइयाँ एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक चलती जाती हैं। और ऐसी लीला में पाण्डव तथा भीष्म जैसे उनके पार्षद उनके नित्य संगी रहते हैं। इस तरह भीष्मदेव पार्थ-सारथी के रूप में भगवान् के सुन्दर-स्वरूप को, जिसे अर्जुन भी नहीं देख पाया, कभी नहीं भुला पाये। अर्जुन पार्थ-सारथी के पीछे थे, जबकि भीष्मदेव भगवान के बिल्कुल सामने। जहाँ तक भगवान् के सैनिक वेश का सम्बन्ध है, भीष्मदेव ने इसका आस्वादन अर्जुन की अपेक्षा अधिक रुचि से किया।

कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि के सारे सैनिकों तथा व्यक्तियों ने मृत्यु के बाद भगवान् जैसा अपना मूल आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त किया, क्योंकि भगवान् की अहैतुकी कृपा से वे सभी उस अवसर पर उनका साक्षात् दर्शन कर सके। जलचर से लेकर ब्रह्मा तक विकास-चक्र में चक्कर लगाते हुए सभी बद्धजीव माया के रूप में हैं या उस रूप में हैं, जिसे उन्होंने अपने कर्मों से प्राप्त किया है और जो भौतिक प्रकृति ने उन्हें प्रदान किया है। बद्धजीवों के भौतिक रूप बाहरी वस्त्रों की तरह हैं और जब बद्धजीव माया के चंगुल से छूट जाता है, तब उसे अपना मूल स्वरूप प्राप्त होता है। निर्विशेषवादी भगवान् के निराकार ब्रह्म तेज को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, लेकिन भगवान् के अंशस्वरूप जीवित स्फुलिंगों के लिए यह रंचमात्र भी हितकर नहीं है। अतएव निर्विशेषवादी पुन: नीचे गिरते हैं और फिर से भौतिक रूप प्राप्त करते हैं, जो आत्मा के लिए मिथ्या होते हैं।

भगवान् को आध्यात्मिक स्वरूप जैसा रूप, चाहे वह दो भुजाओं वाला हो या चतुर्भुजी, भक्तों को आत्मा की मूल प्रकृति के अनुसार वैकुण्ठ में या गोलोक में प्राप्त होता है। यह स्वरूप जो शत प्रतिशत आध्यात्मिक है, जीव का स्वरूप है और उन सारे व्यक्तियों ने, जिन्होंने कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में दोनों ओर से युद्ध किया, अपना-अपना स्वरूप प्राप्त किया जिसकी पुष्टि भीष्मदेव कर रहे हैं। अतएव भगवान् श्रीकृष्ण केवल पाण्डवों पर ही कृपालु नहीं थे। वे दूसरें पक्षों पर भी दयालु थे, क्योंकि उन सबों को एक ही जैसा फल प्राप्त हुआ। भीष्मदेव भी वही सुविधा चाह रहे थे और यही भगवान् से उनकी प्रार्थना थी, यद्यपि भगवान् के पार्षद रूप में किसी भी स्थिति में उनका पद सुरक्षित है। निष्कर्ष यह निकला कि जो भी व्यक्ति भगवान् का दर्शन करते हुए मरता है, चाहे वह दर्शन भीतर से हो या बाहर से, वह अपना स्वरूप प्राप्त करता है। वही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

 
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