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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  1.9.41 
मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्त:
सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो
मम द‍ृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
मुनि-गण—परम विद्वान साधुजन; नृप-वर्य—महान शासक राजा; सङ्कुले—समूह में से; अन्त:-सदसि—सभा, सम्मेलन में; युधिष्ठिर—महाराज युधिष्ठिर का; राज-सूये—राजा द्वारा सम्पन्न यज्ञ; एषाम्—समस्त महापुरुषों का; अर्हणम्—सादर पूजा; उपपेद—प्राप्त किया; ईक्षणीय:—आकर्षण की वस्तु; मम—मेरी; दृशि—दृष्टि; गोचर:—जितना दिखे उसी के भीतर, समक्ष; एष: आवि:—उपस्थिति; आत्मा—आत्मा ।.
 
अनुवाद
 
 महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ में विश्व के सारे महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान् सभा हुई थी और उस सभा में सबों ने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान् के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को याद रखा, जिससे मेरा मन भगवान् में लगा रहे।
 
तात्पर्य
 कुरुक्षेत्र युद्ध में विजयी होने के बाद चक्रवर्ती सम्राट् महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया। उन दिनों, सिंहासन पर बैठने के बाद, राजा अपनी श्रेष्ठता घोषित करने के उद्देश्य से विश्वभर में विचरण हेतु एक घोड़ा छोड़ता था और किसी भी राजकुमार या राजा को यह स्वतन्त्रता थी कि वह उस सम्राट की सत्ता को माने या न माने। जो विरोध करता था, उसे सम्राट से युद्ध करके विजय द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी होती थी। हारने पर उसे अपने जीवन की बलि देनी होती थी जिससे उसके स्थान पर दूसरा राजा या प्रशासक बन सके। अतएव महाराज युधिष्ठिर ने भी ऐसा ही घोड़ा छोड़ा और संसार भर के राजाओं तथा राजकुमारों ने महाराज युधिष्ठिर के नेतृत्व को चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर के राज्य के सारे शासकों को राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। ऐसे यज्ञ में अरबों रुपये व्यय होते थे, अतएव यह छोटे-मोटे राजाओं के बस की बात न थी। ऐसा यज्ञ, अत्यधिक खर्चीला होने तथा वर्तमान परिस्थितियों में सम्पन्न कर पाने में कठिन होने से, इस कलियुग में सम्भव नहीं है। न ही कोई ऐसे पुरोहित रह गये हैं, जो ऐसे यज्ञ का भार अपने ऊपर ले सकें।

इस प्रकार आमन्त्रित होने के बाद, संसार भर के राजा तथा बड़े-बड़े मुनिजन महाराज युधिष्ठिर की राजधानी में एकत्र हुए। इस अवसर पर एक विद्वत्सभा बुलाई गई, जिसमें बड़े-बड़े दार्शनिक, धर्मज्ञ, वैद्य, विज्ञानी तथा सारे महान् ऋषि सम्मिलित हुए। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय सर्वोच्च व्यक्ति होते थे, और वे सभी उस सभा में आमन्त्रित थे। समाज में वैश्य तथा शूद्रों का स्थान कम महत्त्वपूर्ण होता था, अतएव यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है। आधुनिक युग में सामाजिक कार्यकलापों में परिवर्तन होने से, वृत्तिपरक पदों के रूप में मनुष्यों की महत्ता भी बदल गई है।

इस तरह उस महान सभा में, भगवान श्रीकृष्ण सबकी आखों के तारे बने हुए थे। प्रत्येक व्यक्ति भगवान् कृष्ण को देखना चाह रहा था और प्रत्येक व्यक्ति उनको विनम्रता के साथ प्रणाम करना चाहता था। भीष्मदेव को यह सब कुछ स्मरण था, अतएव उन्हें प्रसन्नता थी कि उनके आराध्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उनकी आँखों के सामने अपने वास्तविक स्वरूप में उपस्थित थे। अतएव परमेश्वर का ध्यान करना उनके कार्यकलापों, रूप, लीलाओं, नाम तथा यश का ध्यान करना है। यह उससे सरल है, जिस को सर्वोपरि के निराकार पक्ष का ध्यान माना जाता है। भगवद्गीता (१२.५) में यह स्पष्ट कथन है कि भगवान् के निराकार पक्ष का ध्यान करना अत्यन्त कठिन है। यह वास्तव में कोई ध्यान नहीं, यह तो समय का अपव्यय मात्र है, क्योंकि इससे शायद ही कभी वांछित फल प्राप्त होता है। किन्तु भक्तगण भगवान् के वास्तविक स्वरूप तथा उनकी लीलाओं का ध्यान करते हैं, और ऐसे में भगवान् भक्तों के लिए सहज सुलभ हैं। इसका उल्लेख भी भगवद्गीता (१२.९) में हुआ है। भगवान् अपने दिव्य कार्यकलापों से अभिन्न हैं। इस श्लोक में इसका भी संकेत हुआ है कि जब भगवान् कृष्ण मानव समाज के समक्ष वास्तविक रूप में, विशेष रूप से कुरुक्षेत्र के युद्ध में, उपस्थित हुए तो वे उस समय के महानतम पुरुष माने गये, भले ही तब उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् न स्वीकार किया गया हो। यह प्रचार कि कोई महापुरुष मृत्यु के बाद ईश्वर की भाँति पूजा जाता है, भ्रामक है, क्योंकि मृत्यु के बाद कोई भी मनुष्य को ईश्वर नहीं बनाया जा सकता। न ही भगवान् कभी मनुष्य हो सकते हैं, भले ही वे साक्षात् विद्यमान क्यों न हों। ये दोनों ही विचार भ्रान्तिमूलक हैं। मानववाद का विचार भगवान् कृष्ण पर लागू नहीं होता।

 
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