तत्पश्चात् मनुष्यों तथा देवताओं ने सम्मान में नगाड़े बजाये और निष्ठावान राजाओं ने सम्मान तथा आदर प्रदर्शित किया और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।
तात्पर्य
मनुष्य तथा देवता दोनों ही भीष्मदेव का आदर करते थे। मनुष्य पृथ्वी पर एवं ऐसे ही अन्य ग्रहों के समूह भू: तथा भुव: में रहते हैं, लेकिन देवता स्व: अर्थात् स्वर्ग लोक में रहते हैं और वे सभी भीष्मदेव को एक महान योद्धा तथा भगवद्भक्त के रूप में जानते थे। महाजन (या अधिकारी) के रूप में वे ब्रह्मा, नारद तथा शिव के तुल्य थे, यद्यपि वे एक मानव थे। देवताओं के तुल्य योग्यता आध्यात्मिक पूर्णता मिलने पर ही होती है। इस प्रकार भीष्मदेव ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विख्यात थे और उनके समय में, एक लोक से दूसरे लोक की यात्रा, व्यर्थ के यान्त्रिक अन्तरिक्ष यानों के द्वारा नहीं, अपितु सूक्ष्मतर विधियों से सम्पन्न की जाती थी। जब सुदूर ग्रहों को भीष्मदेव के निधन की सूचना भेजी गई, तो उच्च लोकों के निवासियों ने तथा पृथ्वी के निवासियों ने दिवंगत महापुरुष के सम्मान में पुष्पों की वर्षा की। स्वर्ग से फूलों की वर्षा देवताओं द्वारा मान्यता का चिह्न है और इसकी तुलना कभी भी शव को फूलों से सजाने से नहीं की जानी चाहिए। आत्म-साक्षात्कार के कारण भीष्मदेव के शरीर का भौतिक प्रभाव मिट चुका था और उनका शरीर उसी प्रकार आध्यात्मिक बन गया था, जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क में आकर लोहा तप्त-लाल हो जाता है। अतएव पूर्णत: स्वरूपसिद्ध व्यक्ति का शरीर भौतिक नहीं माना जाता। ऐसे आध्यात्मिक शरीरों के लिए विशेष उत्सव मनाये जाते हैं। भीष्मदेव के सम्मान का तथा उनकी मान्यता का अनुकरण कभी कृत्रिम साधनों से नहीं करना चाहिए, क्योंकि आजकल हर सामान्य व्यक्ति का जयन्ती समारोह मनाया जाता है। प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार किसी सामान्य व्यक्ति का, चाहे वह भौतिक दृष्टि से कितना ही बड़ा क्यों न हो, जयन्ती उत्सव मनाना भगवान् के प्रति अपराध है, क्योंकि जयन्ती तो धरा पर भगवान् के आविर्भाव दिवस के लिए सुरक्षित है। भीष्मदेव अपने कार्य-कलापों के कारण अद्भुत थे और उनका ईश्वर के धाम को प्रयाण भी अद्भुत है।
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