तुष्टुवु:—सन्तुष्ट हुए; मुनय:—व्यासदेव आदि मुनिगण.; हृष्टा:—प्रसन्न मुद्रा में; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण को; तत्— उसका; गुह्य—गोपनीय; नामभि:—उनके नाम से.; तत:—तत्पश्चात्; ते—वे; कृष्ण-हृदया:—कृष्ण को हृदय में धारण करनेवाले; स्व-आश्रमान्—अपने-अपने आश्रमों को; प्रययु:—लौट गये; पुन:—फिर ।.
अनुवाद
तब समस्त मुनियों ने वहाँ पर उपस्थित भगवान् श्रीकृष्ण का यशोगान गुह्य वैदिक मन्त्रों से किया। वे भगवान् कृष्ण को सदा के लिए अपने हृदय में धारण करके अपने- अपने आश्रमों को लौट गए।
तात्पर्य
भगवान् के भक्त सदा ही भगवान् के हृदय में रहते हैं और भगवान् सदैव भक्तों के हृदय में रहते हैं। भगवान् तथा उनके भक्तों के मध्य यही मधुर सम्बन्ध होता है। भगवान् के लिए अनन्य प्रेम तथा भक्ति के कारण, भक्तगण उन्हें सदा अपने अन्दर देखते हैं और भगवान् भी, यद्यपि उन्हें न कुछ लेना-देना रहता है और न कोई आकांक्षा, अपने भक्तों के कल्याण-कार्य में लगे रहते हैं। सामान्य जीवों के लिए सारे कर्मों तथा फलों के लिए प्रकृति के नियम बने हैं, तथापि भगवान् अपने भक्तों को सन्मार्ग पर लाने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। अतएव भक्तगण भगवान् की सीधी देख-रेख में रहते हैं, और भगवान् भी स्वेच्छा से अपने आपको भक्तों की देख-रेख में ही रखते हैं। चूँकि व्यासदेव आदि सारे मुनि भगवान् के भक्त थे, अतएव अन्त्येष्टि क्रिया के बाद सबों ने वहाँ पर उपस्थित भगवान् कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया। सारे वैदिक मन्त्र भगवान् को प्रसन्न करने के लिए पढ़े जाते हैं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१५.१५) में हुई है। सारे वेद, उपनिषद्, वेदान्त आदि उन्हीं को खोजते हैं और सारे मन्त्र उन्हीं के यशोगान के लिए ही हैं। अतएव मुनियों ने अवसर के अनुकूल कृत्य किये और खुशी-खुशी अपने-अपने आश्रमों को लौट गये।
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