पित्रा—ताऊ धृतराष्ट्र द्वारा; च—तथा; अनुमत:—उनकी अनुमति से; राजा—राजा युधिष्ठिर ने; वासुदेव-अनुमोदित:— भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा पुष्ट किये जाने पर; चकार—चलाया; राज्यम्—राज्य; धर्मेण—राज-नियमों के सिद्धान्त अनुसार; पितृ—पिता; पैतामहम्—पूर्वज जैसा; विभु:—महान् ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् परम धर्मात्मा राजा महाराज युधिष्ठिर ने अपने ताऊ द्वारा प्रतिपादित तथा श्रीकृष्ण द्वारा अनुमोदित राजनियमों के सिद्धान्त अनुसार साम्राज्य का संचालन किया।
तात्पर्य
महाराज युधिष्ठिर मात्र कर-संग्रहकर्ता न थे। वे राजा के कर्तव्य के प्रति सदैव सचेष्ट रहे, क्योंकि राजा पिता या गुरु से कम नहीं होता। राजा को प्रजा की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक उत्थान के सभी दृष्टिकोणों से भलाई देखनी होती है। राजा को जानना चाहिए कि मनुष्य जीवन बद्ध आत्मा को भौतिक बन्धन से मुक्त करने के लिए है, अतएव उसका धर्म है कि वह प्रजा की ठीक से देखभाल करे, जिससे प्रजा सिद्धि की चरमावस्था को प्राप्त कर सके।
महाराज युधिष्ठिर ने इन नियमों का दृढ़ता से पालन किया, जैसाकि अगले अध्याय से पता चलेगा। उन्होंने न केवल नियमों का पालन किया, अपितु अपने वृद्ध ताऊ की सहमति भी प्राप्त की, जो राजनीतिक मामलों में अनुभवी थे और उसकी पुष्टि भगवान् कृष्ण द्वारा भी की गई, जो भगवद्गीता दर्शन के वक्ता हैं।
महाराज युधिष्ठिर आदर्श राजा थे और महाराज युधिष्ठिर जैसे प्रशिक्षित राजा के अधीन एक राजतन्त्र सर्वश्रेष्ठ सरकार है, जो आधुनिक गणतन्त्रों या सरकारों से कहीं श्रेष्ठ है। इस कलियुग में अधिकांश लोग जन्मजात शूद्र हैं, जो निम्न कुल में उत्पन्न हैं, जो ठीक से प्रशिक्षित नहीं होते जो अभागे तथा कुसंगति में रहनेवाले हैं। उन्हें जीवन के परम उद्देश्य का भी पता नहीं रहता। अतएव उनके द्वारा किए गए मतदान का कोई महत्त्व नहीं है, अत: ऐसे गैरजिम्मेदार मतों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि कभी भी महाराज युधिष्ठिर के समान जिम्मेदार नहीं हो सकते।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अन्तर्गत ‘भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग’ नामक नवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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