तथा शुकदेव गोस्वामी एवं अन्य पवित्रात्माएँ, कश्यप, आंगिरस इत्यादि अपने-अपने शिष्यों के साथ वहाँ पर आये।
तात्पर्य
शुकदेव गोस्वामी (ब्रह्मरात) : ये व्यासदेव के प्रख्यात पुत्र तथा शिष्य थे, जिन्हें उन्होंने सर्वप्रथम महाभारत तथा उसके बाद श्रीमद्भागवत की शिक्षा दी। शुकदेव गोस्वामी ने गन्धर्वों, यक्षों तथा राक्षसों की सभा में महाभारत के चौदह लाख श्लोक सुनाये थे और श्रीमद्भागवत सर्वप्रथम महाराज परीक्षित को सुनाया। उन्होंने अपने पिता से सारे वैदिक साहित्य का पूरी तरह अध्ययन किया। इस प्रकार धर्म-सम्बन्धी अपने विस्तृत ज्ञान के कारण वे पूर्ण पवित्रात्मा थे। महाभारत के सभापर्व (४.११) से ज्ञात होता है कि ये महाराज युधिष्ठिर की राजसभा में तथा महाराज परीक्षित के उपवास के समय भी उपस्थित हुए थे। श्री व्यासदेव के प्रामाणिक शिष्य होने के नाते ये अपने पिता से धार्मिक सिद्धान्तों तथा आध्यात्मिक मूल्यों के विषय में जिज्ञासाएँ करते रहते थे। इनके पिता ने इन्हें योग-पद्धति सिखलाई, जिससे वैकुण्ठ प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने कर्म तथा ज्ञान का अन्तर, आत्म-साक्षात्कार करने के साधन, चारों आश्रम (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास आश्रम), पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दिव्य पद, उनके साक्षात् दर्शन करने की विधि, ज्ञान प्राप्त करनेवाला सुपात्र, पाँच तत्त्व, बुद्धि की अद्वितीय स्थिति, प्रकृति की चेतना तथा जीव, स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण, शरीर के सिद्धान्त, प्रकृति के गुणों के लक्षण, कल्पतरु तथा मनोवैज्ञानिक कार्यों के विषय में शिक्षा दी। कभी-कभी वे अपने पिता तथा नारदजी की अनुमति से सूर्यलोक भी जाया करते थे। महाभारत के शान्ति-पर्व (३३२) में उनकी अन्तरिक्ष-यात्रा का विवरण प्राप्त है। अन्त में उन्हें परम धाम की प्राप्ति हुई। वे अरणेय, अरुणिसुत, वैयासकि तथा व्यासात्मज इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं।
कश्यप—वे मरीचि के पुत्र, प्रजापतियों में से एक तथा प्रजापति दक्ष के दामाद थे। वे उस विराट गरुड़ पक्षी के पिता हैं, जिसे खाने के लिए बड़े-बड़े हाथियों तथा कछुओं को परोसा जाता था। उन्होंने प्रजापति दक्ष की तेरह पुत्रियों से विवाह किया। उनके नाम थे—अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा तथा तिमि। इन पत्नियों से उनके अनेक पुत्र हुए, जो देवता तथा असुर दोनों थे। उनकी प्रथम पत्नी अदिति से बारहों आदित्य उत्पन्न हुए थे, जिनमें से वामन ईश्वर के अवतार हैं। ये कश्यप मुनि अर्जुन के जन्म के समय भी विद्यमान थे। परशुराम ने इन्हें सारा विश्व भेंट किया और बाद में इन्होंने परशुराम को विश्व के बाहर जाने की आज्ञा दी। इनका दूसरा नाम अरिष्टनेमि था। ये ब्रह्माण्ड की उत्तरी दिशा में निवास करते हैं।
आङ्गिरस—ये महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं और देवताओं के पुरोहित, बृहस्पति नाम से विख्यात हैं। कहा जाता है कि द्रोणाचार्य इनके अंश-अवतार थे। शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे और बृहस्पति ने उन्हें ललकारा था। उनके पुत्र कच ने सर्वप्रथम भरद्वाज मुनि को अग्न्यास्त्र प्रदान किया। उन्हें अपनी पत्नी चन्द्रमासी से, जो कि एक विख्यात नक्षत्र है, अग्नि देव के समान छह पुत्र प्राप्त हुए। वे अन्तरिक्ष में विचरण कर सकते थे, अतएव ब्रह्मलोक तथा इन्द्रलोक में भी जा सकते थे। उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्र को असुरों पर विजय प्राप्त पाने के लिए सलाह दी। एक बार उन्होंने इन्द्र को श्राप दिया, जिससे उसे पृथ्वी पर शूकर बनकर आना पड़ा। वह स्वर्ग वापस जाने से अनिच्छा व्यक्त करने लगे। माया की आकर्षण शक्ति ऐसी होती है कि शूकर भी, धरा के घर-द्वार को छोडऩा नहीं चाहता, भले ही बदले में स्वर्ग मिलता हो। वे विभिन्न लोकवासियों के धर्मोपदेशक थे।
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