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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 1: भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार: परिचय  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  10.1.21 
गिरं समाधौ गगने समीरितांनिशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरुषीं मे श‍ृणुतामरा: पुन-र्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
गिरम्—शब्दों की ध्वनि; समाधौ—समाधि में; गगने—आकाश में; समीरिताम्—ध्वनित; निशम्य—सुनकर; वेधा:—ब्रह्मा ने; त्रिदशान्—देवताओं को; उवाच—कहा; —ओह; गाम्—आदेश; पौरुषीम्—परम पुरुष से प्राप्त; मे—मुझको; शृणुत— सुनिए; अमरा:—हे देवताओ; पुन:—फिर; विधीयताम्—सम्पन्न करो; आशु—तुरन्त; तथा एव—उसी तरह; मा—मत; चिरम्—विलम्ब ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी जब समाधि में थे, भगवान् विष्णु के शब्दों को आकाश में ध्वनित होते सुना। तब उन्होंने देवताओं से कहा, “अरे देवताओ! मुझसे परम पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु का आदेश सुनो और बिना देर लगाए उसे ध्यानपूर्वक पूरा करो।”
 
तात्पर्य
 ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् के शब्दों को सक्षम व्यक्ति समाधि में सुन सकते हैं। आधुनिक विज्ञान ने हमें टेलीफोन प्रदान किया है, जिसकी सहायता से हम सुदूर स्थान की ध्वनियाँ सुन सकते हैं। इसी तरह, यद्यपि अन्य लोग भगवान् विष्णु के शब्दों को नहीं सुन सकते, किन्तु ब्रह्माजी अपने अभ्यंतर में भगवान् के शब्दों को सुन सकते हैं। इसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में ही (१.१.१) तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये के द्वारा हुई है। आदि कवि ब्रह्माजी हैं। ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदि में अपने हृदय के माध्यम से (हृदा ) भगवान् विष्णु से वैदिक ज्ञान का आदेश प्राप्त किया। यहाँ उसी सिद्धान्त की पुष्टि हुई है। ब्रह्मा ने समाधिस्थ अवस्था में क्षीरोदकशायी विष्णु के शब्द सुने और भगवान् के सन्देश को देवताओं तक पहुँचाया। इसी तरह ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में अपने हृदय के भीतर भगवान् से वैदिक ज्ञान प्राप्त किया। दोनों ही अवसरों पर ब्रह्माजी तक सन्देश ले जाने में एक ही विधि प्रयुक्त हुई। दूसरे शब्दों में, यद्यपि भगवान् विष्णु ब्रह्माजी को भी नहीं दिख रहे थे, किन्तु वे अपने हृदय के माध्यम से भगवान् विष्णु के शब्द सुन सके। ब्रह्माजी तक को नहीं दिखते फिर भी वे इस धरा पर अवतरित होते हैं और सामान्य जनता को दृष्टिगोचर होते हैं। यह उनकी अहैतुकी कृपावश ही होता है, किन्तु मूर्ख तथा अभक्त यही सोचते हैं कि कृष्ण सामान्य ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। चूँकि वे भगवान् को अपने ही जैसा सामान्य व्यक्ति सोचते हैं इसलिए उन्हें मूढ कहा गया है (अवजानन्ति मां मूढा:)। ऐसे असुरगण जो भगवद्गीता के उपदेशों को नहीं समझ पाते और जो इसीलिए उन उपदेशों की गलत व्याख्या करते हैं, वे भगवान् की अहैतुकी कृपा की उपेक्षा करते हैं।
 
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