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श्लोक |
एवं विमृश्य तं पापं यावदात्मनिदर्शनम् ।
पूजयामास वै शौरिर्बहुमानपुर:सरम् ॥ ५२ ॥ |
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शब्दार्थ |
एवम्—इस प्रकार से; विमृश्य—सोच विचार कर; तम्—कंस को; पापम्—अत्यन्त पापी; यावत्—यथासम्भव; आत्मनि दर्शनम्—अपनी बुद्धि भर, भरसक; पूजयाम् आस—प्रशंसा की; वै—निस्सन्देह; शौरि:—वसुदेव ने; बहु-मान—सत्कार करते हुए; पुर:सरम्—उसके सामने ।. |
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अनुवाद |
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इस तरह इस विषय पर अपनी बुद्धिसे भरपूर विचार करने के बाद वसुदेव ने पापी कंस के समक्ष बड़े ही आदरपूर्वक अपना प्रस्ताव रखा। |
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