श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  10.10.12 
एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम् ।
को विद्वानात्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसत: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; साधारणम्—सामान्य सम्पत्ति; देहम्—शरीर को; अव्यक्त—अव्यक्त प्रकृति से; प्रभव—इस प्रकार से व्यक्त; अप्ययम्—पुन: अव्यक्त में लीन होकर (“क्योंकि, तू मिट्टी है और तुम्हें मिट्टी में ही वापस मिल जाना है”); क:—कौन है; विद्वान्—ज्ञानी; आत्मसात् कृत्वा—अपना कहते हुए; हन्ति—मारता है; जन्तून्—बेचारे पशुओं को; ऋते—सिवाय; असत:—धूर्त तथा मूढ़ जिन्हें कोई ज्ञान नहीं है ।.
 
अनुवाद
 
 यह शरीर आखिर अव्यक्त प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया जाता है और नष्ट होकर पुन: प्राकृतिक तत्त्वों में विलीन हो जाता है। अतएव यह सबों का सर्वसामान्य गुण है। ऐसी परिस्थितियों में जो धूर्त होगा वही इस सम्पत्ति को अपनी होने का दावा करेगा और उसे बनाये रखते हुए अपनी इच्छाओं की तुष्टि के लिए पशुओं की हत्या जैसे पापकर्म करता रहता है। केवल मूढ़ ही ऐसे पापकर्म कर सकता है।
 
तात्पर्य
 नास्तिक लोग आत्मा में विश्वास नहीं करते। तो भी, जब तक कोई निष्ठुर नहीं हो तब तक वह पशुओं की व्यर्थ हत्या क्यों करेगा? शरीर पदार्थ के संयोग की अभिव्यक्ति है। प्रारम्भ में यह कुछ नहीं था किन्तु पदार्थ के संयोग से इसका अस्तित्व हुआ। पुन: जब यह संयोग छिन्न-भिन्न होगा तो इस शरीर का अस्तित्व नहीं रहेगा। आदि में यह शरीर कुछ नहीं था और अन्त में भी यह कुछ नहीं रह जायेगा। तो फिर जब वह व्यक्त रूप में आता है, तो कोई पापकर्म क्यों करे? जब तक कोई धूर्त न हो तब तक ऐसा कर पाना सम्भव नहीं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥