कहा गया है—महद्विचलनं नणां गृहिणां दीनचेतसाम् (भागवत १०.८.४)। साधु-पुरुष या संन्यासी का एकमात्र कार्य है कि वह कृष्णभावनामृत का प्रचार करे। यद्यपि साधु-पुरुष निर्धन तथा धनी दोनों को उपदेश देना चाहते हैं किन्तु निर्धन लोग उनके उपदेशों से धनी लोगों की अपेक्षा अधिक लाभ उठाते हैं। निर्धन व्यक्ति साधुओं का तुरन्त स्वागत करता है, उन्हें नमस्कार करता है और उनकी उपस्थिति का लाभ उठाना चाहता है किन्तु धनी व्यक्ति अपने दरवाजे पर एक बड़ा शिकारी कुत्ता रखता है, जिससे कोई उसके घर में घुस न सके। वह दरवाजे पर “कुत्ते से सावधान” लिखी तख्ती टाँग देता है और साधु-पुरुषों की संगति से कतराता है, जबकि निर्धन उनके लिए अपना द्वार खुला रखता है। इस तरह निर्धन लोग धनी लोगों की अपेक्षा उनसे अधिक लाभ उठाते हैं। नारद मुनि पूर्वजन्म में दासी के निर्धन पुत्र थे किन्तु सन्त-पुरुषों की संगति से बाद में स्वयं सुप्रतिष्ठित नारदमुनि बन गये। यह उनका वास्तविक अनुभव था। इसलिए वे अब निर्धन व्यक्ति की अवस्था की तुलना धनी व्यक्ति की अवस्था से कर रहे हैं। सतां प्रसङ्गान् मम वीर्यंसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा:।
तज्जोषनादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
(भागवत ३.२५.२५) यदि किसी को सन्त-पुरुषों की संगति का लाभ हो सके तो वह उनके उपदेशों से भौतिक इच्छाओं से अधिकाधिक रहित हो जाता है।
कृष्णबहिर्मुख हैया भोग-वाञ्छा करे।
निकटस्थ माया तारे जापटिया धरे ॥
(प्रेमविवर्त ) भौतिक जीवन का अर्थ ही है कि कृष्ण को भूल कर इन्द्रिय-तृप्ति की अधिकाधिक इच्छा करना। किन्तु यदि मनुष्य को सन्त-पुरुषों के उपदेशों का लाभ प्राप्त हो जाता है और वह भौतिक इच्छाओं की महत्ता को भूल जाता है, तो वह अपने आप शुद्ध हो जाता है। चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि निर्वापनम् (शिक्षाष्टक १)। जब तक भौतिकवादी व्यक्ति का हृदय शुद्ध नहीं हो जाता वह भवमहादावाग्नि के कष्ट से छुटकारा नहीं पा सकता।