श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  10.10.18 
साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम् ।
उपेक्ष्यै: किं धनस्तम्भैरसद्भ‍िरसदाश्रयै: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
साधूनाम्—साधु-पुरुषों का; सम-चित्तानाम्—उनका जो सबों को समान रूप में देखते हैं; मुकुन्द-चरण-एषिणाम्—जिनका एकमात्र कार्य है भगवान् मुकुन्द की सेवा करना और जो उसी सेवा की आंकाक्षा करते हैं; उपेक्ष्यै:—संगति की उपेक्षा करके; किम्—क्या; धन-स्तम्भै:—धनी तथा गर्वित; असद्भि:—अवांछित व्यक्तियों की संगति से; असत्-आश्रयै:—असतों अर्थात् अभक्तों की शरण लेकर ।.
 
अनुवाद
 
 सन्त-पुरुष (साधुजन) चौबीसों घण्टे कृष्ण का चिन्तन करते रहते हैं। उनकी और कोई रूचि नहीं रहती। तो फिर लोग ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की संगति की उपेक्षा करके क्यों उन भौतिकतावादियों की संगति करने का प्रयास करते हैं तथा उन अभक्तों की शरण लेते हैं जिनमें से अधिकांश अभिमानी तथा धनी हैं?
 
तात्पर्य
 साधु वह है, जो विचलित हुए बिना भगवद्भक्ति में लगा रहता है (भजते माम् अनन्यभाक् ) तितिक्षस्व: कारुणिका: सुहृद: सर्वदेहिनाम्।

अजातशत्रव: शान्ता: साधव: साधु-भूषणा: ॥

“साधु के लक्षण हैं—वह सभी जीवों के प्रति सहिष्णु, दयालु तथा मित्र-भाव रखने वाला होता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता। वह शान्त रहता है, शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण उदात्त होते हैं। (भागवत ३.२५.२१)। साधु सबों का मित्र होता है(सुहृद: सर्वदेहिनाम् ), तो फिर धनी लोग साधुओं की संगति न करके उन अन्य धनी व्यक्तियों की संगति में अपना बहुमूल्य समय क्यों गँवाते हैं, जिन्हें आध्यात्मिक जीवन से वितृष्णा है? निर्धन तथा धनी दोनों ही प्रकार के लोग कृष्णभावनामृत आन्दोलन का लाभ उठा सकते हैं अत: सबों को यही सलाह दी जाती है कि वे ऐसा करें। कृष्णभावनामृत आन्दोलन के सदस्यों की संगति से आनाकानी से कोई लाभ नहीं होगा। नरोत्तम दास ठाकुर ने कहा है—

सत्संग छाडिऽकैनु असते विलास।

ते-कारणे लागिल ये कर्म-बन्ध-फांस ॥

यदि हम कृष्णभावनाभावित साधुओं की संगति छोडक़र इन्द्रिय-तृप्ति में व्यस्त रहने वाले तथा इसी कार्य के लिए धन संचय करने वाले लोगों से संगति करेंगे तो हमारा जीवन चौपट हो जायेगा। असत् शब्द अवैष्णव अर्थात् जो कृष्ण-भक्त नहीं है, का द्योतक है तथा सत् शब्द वैष्णव अर्थात् कृष्ण-भक्त का। मनुष्य को चाहिए कि वैष्णवों की संगति करे और अवैष्णवों के साथ मेल-जोल कर के अपना जीवन बर्बाद न करे। भगवद्गीता (७.१५) में वैष्णव तथा अवैष्णव का अन्तर बतलाया गया है—

न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ॥

जो कृष्ण की शरण में नहीं गया वह सर्वाधिक पापी (दुष्कृती ), धूर्त (मूढ ) तथा सबसे नीच (नराधम ) व्यक्ति है। अत: मनुष्यों को चाहिए कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन के रूप में विश्व-भर में प्राप्य वैष्णवों की संगति से कतरायें नहीं।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥