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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  10.10.19 
तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयो: ।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनो: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—अतएव; अहम्—मैं; मत्तयो:—इन दोनों उन्मत्त पुरुषों के; माध्व्या—शराब पीने के कारण; वारुण्या—वारुणी नामक; श्री-मद-अन्धयो:—जो दैवी सम्पदा से अन्धे हो चुके हैं; तम:-मदम्—तमोगुण के कारण इस मिथ्या प्रतिष्ठा को; हरिष्यामि— छीन लूँगा; स्त्रैणयो:—स्त्रियों पर अनुरक्त होने के कारण; अजित-आत्मनो:—इन्द्रियों को वश में न कर पाने के कारण ।.
 
अनुवाद
 
 इसलिए ये दोनों व्यक्ति वारुणी या माध्वी नामक शराब पीकर तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने के कारण स्वर्ग के ऐश्वर्य-गर्व से अन्धे और स्त्रियों के प्रति अनुरक्त हो चुके हैं। मैं उनको इस झूठी प्रतिष्ठा से विहीन कर दूँगा।
 
तात्पर्य
 जब कोई साधु किसी को डाँटता या दंड देता है, तो वह बदले की भावना से ऐसा नहीं करता। महाराज परीक्षित ने पूछा था कि नारदमुनि में किस तरह बदले की भावना (तम:) उठी। किन्तु यह तम: नहीं था क्योंकि नारदमुनि को पूर्ण ज्ञान था कि इन दोनों भाइयों का हित किसमें हैं इसलिए उन्होंने विचार किया कि उन्हें किस तरह मार्ग पर लाया जाय। वैष्णवजन अच्छे वैद्य होते हैं। वे जानते हैं कि भवरोग से मनुष्यों को कैसे बचाया जाय। अत: वे कभी भी तमोगुणी नहीं होते। स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते (भगवद्गीता १४.२६)। वैष्णवजन सदा ही ब्रह्म-पद पर स्थित होते हैं। वे न तो कभी कोई गलती करते हैं, न ही भौतिक गुणों के वशीभूत होते हैं। पूरी तरह सोच-विचार कर वे जो भी करते हैं वह सबों को भगवद्धाम ले जाने के लिए मार्गदर्शक होता है।
 
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