इस श्लोक में शिवजी के भक्तों या पार्षदों को प्राप्त कतिपय भौतिक सुविधाओं का उल्लेख हुआ है। यदि कोई व्यक्ति शिवजी के अतिरिक्त किसी अन्य देवता का भी भक्त होता है, तो उसे कुछ भौतिक सुविधाएँ मिलती हैं। इसलिए मूर्ख लोग देवताओं के भक्त बन जाते हैं। भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता (७.२०) में इसका संकेत करते हुए इसकी आलोचना की है— कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:)। जो कृष्णभक्त नहीं हैं उन्हें स्त्रियों, मदिरा इत्यादि का व्यसन लग जाता है इसलिए उन्हें हृतज्ञान अर्थात् विवेकशून्य कहा गया है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन ऐसे मूर्ख लोगों को तुरन्त पहचान लेता है क्योंकि भगवद्गीता (७.१५) में उनका संकेत किया गया है जहाँ कृष्ण कहते हैं—
न माम् दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावं आश्रित: ॥
“ऐसे दुष्ट जो निपट मूर्ख हैं, मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान मोह द्वारा अपहृत हो चुका है और जो आसुरी नास्तिक प्रकृति वाले हैं, वे मेरी शरण में नहीं आते।” जो व्यक्ति कृष्णभक्त नहीं है और उनकी शरण में नहीं जाता उसे नराधम अर्थात् मनुष्यों में सबसे नीच तथा दुष्कृती अर्थात् पापकर्मों को करने वाला माना जाना चाहिए। अधम व्यक्ति को ढूँढ लेना कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि उसकी स्थिति का पता केवल इसी एक कसौटी से लग जाता है कि वह कृष्ण का भक्त है अथवा नहीं।
आखिर देवताओं के भक्तों की संख्या वैष्णवों से अधिक क्यों है? इसका उत्तर यहाँ दिया गया है। वैष्णवजन न तो वारुणी तथा स्त्रियों जैसी निम्न कोटि के मनोरंजनों में रुचि लेते हैं, न ही कृष्ण ऐसी सुविधाओं की अनुमति देते हैं।