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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 2-3
 
 
श्लोक  10.10.2-3 
श्रीशुक उवाच
रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुद‍ृप्तौ धनदात्मजौ ।
कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥ २ ॥
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।
स्त्रीजनैरनुगायद्भ‍िश्चेरतु: पुष्पिते वने ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; रुद्रस्य—शिवजी के; अनुचरौ—दो भक्त या पार्षद; भूत्वा—बन कर; सु-दृप्तौ—अपने पद तथा अपने सुन्दर रूप-रंग से गर्वित होकर; धनद-आत्मजौ—देवों के कोषाध्यक्ष कुवेर के दोनों पुत्र; कैलास-उपवने—शिवजी के निवास कैलाश पर्वत से लगे एक छोटे बाग में; रम्ये—सुन्दर स्थान में; मन्दाकिन्याम्—मन्दाकिनी नदी के तट पर; मद-उत्कटौ—अत्यधिक गर्वित तथा उन्मत्त; वारुणीम्—वारुणी को; मदिराम्—नशीले द्रव को; पीत्वा—पी पी कर; मद-आघूर्णित-लोचनौ—नशे से आँखें घुमाते हुए; स्त्री-जनै:—स्त्रियों के साथ; अनुगायद्भि:—उनके द्वारा गाये गये गीतों से गुञ्जरित; चेरतु:—घूम रहे थे; पुष्पिते वने—सुन्दर फूल के बाग में ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, चूँकि कुवेर के दोनों पुत्रों को भगवान् शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलत: वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे। उन्हें मन्दाकिनी नदी के तट पर कैलाश पर्वत से सटे हुए बाग में विचरण करने की अनुमति प्राप्त थी। इसका लाभ उठाकर वे दोनों वारुणी नाम की मदिरा पिया करते थे। वे अपने साथ गायन करती स्त्रियों को लेकर उस फूलों के बाग में घूमा करते थे। उनकी आँखें नशे से सदैव घूमती रहती थीं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में शिवजी के भक्तों या पार्षदों को प्राप्त कतिपय भौतिक सुविधाओं का उल्लेख हुआ है। यदि कोई व्यक्ति शिवजी के अतिरिक्त किसी अन्य देवता का भी भक्त होता है, तो उसे कुछ भौतिक सुविधाएँ मिलती हैं। इसलिए मूर्ख लोग देवताओं के भक्त बन जाते हैं। भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता (७.२०) में इसका संकेत करते हुए इसकी आलोचना की है—

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:)। जो कृष्णभक्त नहीं हैं उन्हें स्त्रियों, मदिरा इत्यादि का व्यसन लग जाता है इसलिए उन्हें हृतज्ञान अर्थात् विवेकशून्य कहा गया है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन ऐसे मूर्ख लोगों को तुरन्त पहचान लेता है क्योंकि भगवद्गीता (७.१५) में उनका संकेत किया गया है जहाँ कृष्ण कहते हैं—

न माम् दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावं आश्रित: ॥

“ऐसे दुष्ट जो निपट मूर्ख हैं, मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान मोह द्वारा अपहृत हो चुका है और जो आसुरी नास्तिक प्रकृति वाले हैं, वे मेरी शरण में नहीं आते।” जो व्यक्ति कृष्णभक्त नहीं है और उनकी शरण में नहीं जाता उसे नराधम अर्थात् मनुष्यों में सबसे नीच तथा दुष्कृती अर्थात् पापकर्मों को करने वाला माना जाना चाहिए। अधम व्यक्ति को ढूँढ लेना कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि उसकी स्थिति का पता केवल इसी एक कसौटी से लग जाता है कि वह कृष्ण का भक्त है अथवा नहीं।

आखिर देवताओं के भक्तों की संख्या वैष्णवों से अधिक क्यों है? इसका उत्तर यहाँ दिया गया है। वैष्णवजन न तो वारुणी तथा स्त्रियों जैसी निम्न कोटि के मनोरंजनों में रुचि लेते हैं, न ही कृष्ण ऐसी सुविधाओं की अनुमति देते हैं।

 
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