श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  10.10.28 
तत्र श्रिया परमया ककुभ: स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदा: ।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली विरजसाविदमूचतु: स्म ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ, जहाँ अर्जुन वृक्ष गिरे थे; श्रिया—सजायी गयी; परमया—अत्यधिक; ककुभ:—सारी दिशाएँ; स्फुरन्तौ—तेज से प्रकाशित; सिद्धौ—दो सिद्ध पुरुष; उपेत्य—निकल कर; कुजयो:—दोनों वृक्षों के बीच से; इव—सदृश; जात-वेदा:—साक्षात् अग्नि; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण को; प्रणम्य—प्रणाम करके; शिरसा—सिर के बल; अखिल-लोक-नाथम्—परम पुरुष को, जो सबों के स्वामी हैं; बद्ध-अञ्जली—हाथ जोड़े हुए; विरजसौ—तमोगुण धुल जाने पर; इदम्—यह; ऊचतु: स्म—कहा ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान् सिद्ध पुरुष, जो साक्षात् अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर निम्नलिखित शब्द कहे।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥