तत्र—वहाँ, जहाँ अर्जुन वृक्ष गिरे थे; श्रिया—सजायी गयी; परमया—अत्यधिक; ककुभ:—सारी दिशाएँ; स्फुरन्तौ—तेज से प्रकाशित; सिद्धौ—दो सिद्ध पुरुष; उपेत्य—निकल कर; कुजयो:—दोनों वृक्षों के बीच से; इव—सदृश; जात-वेदा:—साक्षात् अग्नि; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण को; प्रणम्य—प्रणाम करके; शिरसा—सिर के बल; अखिल-लोक-नाथम्—परम पुरुष को, जो सबों के स्वामी हैं; बद्ध-अञ्जली—हाथ जोड़े हुए; विरजसौ—तमोगुण धुल जाने पर; इदम्—यह; ऊचतु: स्म—कहा ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान् सिद्ध पुरुष, जो साक्षात् अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर निम्नलिखित शब्द कहे।
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