वाणी—शब्द, बोलने की शक्ति; गुण-अनुकथने—सदैव आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में व्यस्त; श्रवणौ—कान; कथायाम्—आपकी तथा आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में; हस्तौ—हाथ, पैर तथा अन्य इन्द्रियाँ; च—भी; कर्मसु— आपका आदेश पालन करने में लगाकर; मन:—मन; तव—आपका; पादयो:—चरणकमलों का; न:—हमारी; स्मृत्याम्— ध्यान में लगी स्मृति में; शिर:—सिर; तव—आपका; निवास-जगत्-प्रणामे—चूँकि आप सर्वव्यापी हैं और सर्वस्व हैं तथा हमारे सिरों को नत होना चाहिए, भोग के लिए नहीं; दृष्टि:—देखने की शक्ति; सताम्—वैष्णवों के; दर्शने—दर्शन करने में; अस्तु— इसी तरह लगे रहें; भवत्-तनूनाम्—जो आपसे अभिन्न हैं ।.
अनुवाद
अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।
तात्पर्य
यहाँ पर भगवान् को समझने की विधि दी गई है। यह विधि भक्ति है। श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(भागवत ७.५.२३) हर वस्तु को भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए। हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते (नारद पञ्चरात्र)। भगवान् कृष्ण की सेवा में हर वस्तु को—मन, शरीर तथा सारी इन्द्रियों को—लगाना चाहिए। इसे नारद, स्वयम्भू तथा शम्भु जैसे दक्ष भक्तों से सीखना होगा। यही विधि है। हम भगवान् को समझने की अपनी विधि नहीं गढ़ सकते क्योंकि ऐसा नहीं है कि हम जो भी कल्पना कर लें या मन से गढ़ लें उससे भगवान् का ज्ञान हो जायेगा। ऐसा विचार—यत मत, तत पथ—मूर्खतापूर्ण होता है। कृष्ण कहते हैं—भक्त्याहमेकया ग्राह्य:—केवल भक्ति के कार्यों द्वारा मुझे समझा जा सकता है (भागवत ११.१४.२१)। यह आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनम् अर्थात् भगवान् की सेवा में अनुकूल भाव से लगे रहना कहलाता है।
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