श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  10.10.40 
श्रीभगवानुवाच
ज्ञातं मम पुरैवैतद‍ृषिणा करुणात्मना ।
यच्छ्रीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रह: कृत: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; ज्ञातम्—ज्ञात है; मम—मुझको; पुरा—भूतकाल में; एव—निस्सन्देह; एतत्—यह घटना; ऋषिणा—नारद ऋषि से; करुणा-आत्मना—तुम पर अत्यधिक कृपालु होने के कारण; यत्—जो; श्री-मद-अन्धयो:— जो भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त हो चुके थे फलत: अंधे बन गये थे; वाग्भि:—वाणी से या शाप से; विभ्रंश:—स्वर्गलोक से गिर कर यहाँ पर अर्जुन वृक्ष बनने के लिए; अनुग्रह: कृत:—तुम पर उन्होंने बहुत अनुग्रह किया है ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने कहा : परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं। उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बन चुके थे। यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिर कर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिक कृपा की। मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।
 
तात्पर्य
 अब भगवान् द्वारा इसकी पुष्टि हो जाती है कि भक्त का शाप अनुग्रह भी माना जाता है। जिस तरह कृष्ण अर्थात् ईश्वर सर्वमंगल रूप हैं उसी तरह वैष्णव भी होता है। वह जो भी करता है, वह हर एक के लिए शुभ होता है। इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥