श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  10.10.5 
यद‍ृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव ।
अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
यदृच्छया—संयोगवश, सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करते हुए; च—तथा; देव-ऋषि:—देवताओं में परम सन्त-पुरुष; भगवान्— अत्यन्त शक्तिशाली; तत्र—वहाँ (जहाँ कुवेर के पुत्र क्रीड़ा कर रहे थे); कौरव—हे महराज परीक्षित; अपश्यत्—देखा; नारद:—परम सन्त ने; देवौ—देवताओं के दोनों बालकों को; क्षीबाणौ—नशे से उन्मत्त आँखों वाले; समबुध्यत—समझ गये ।.
 
अनुवाद
 
 हे महाराज परीक्षित, उन दोनों बालकों के सौभाग्य से एक बार देवर्षि नारद संयोगवश वहाँ प्रकट हो गये। उन्हें नशे में उन्मत्त तथा आँखें घुमाते हुए देख कर नारद उनकी दशा समझ गये।
 
तात्पर्य
 कहा गया है (चैतन्य-चरितामृत मध्य २२.५४) ‘साधुसंग’ ‘साधुसंग’—सर्वशास्त्रे कय।

लवमात्र साधुसंगे सर्वसिद्धि हय ॥

नारदमुनि जहाँ भी जाते हैं और जिस मुहूर्त में वे प्रकट होते हैं उसे अत्यन्त शुभ माना जाता है। कहा भी गया है (चैतन्य-चरितामृत मध्य (१९.१५१) ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव।

गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्तिलता-बीज ॥

“सारे जीव अपने अपने कर्मों के अनुसार सारे ब्रह्माण्ड में भटकते रहते हैं। इनमें से कुछ स्वर्ग जाते हैं, तो कुछ नरक जाते हैं। भटकने वाले ऐसे लाखों जीवों में से जो अत्यन्त भाग्यशाली होता है उसे ही कृष्ण की कृपा से प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु का सान्निध्य प्राप्त हो पाता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसे व्यक्ति को भक्तिलता का बीज प्राप्त हो पाता है।” उस बाग में कुवेर के दोनों पुत्रों को भक्ति का बीज प्रदान करने के लिए ही नारद प्रकट हुए, यद्यपि वे दोनों नशे में उन्मत्त थे। सन्त-पुरुष जानते हैं कि पतितात्माओं पर किस तरह कृपा की जाती है।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥