श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  10.10.7 
तौ द‍ृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
तौ—देवताओं के दोनों बालकों को; दृष्ट्वा—देखकर; मदिरा-मत्तौ—शराब पीने के कारण नशे में मस्त उन्मत्त; श्री-मद- अन्धौ—झूठी प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य के कारण अन्धे हुए; सुर-आत्मजौ—देवताओं के दोनों पुत्र; तयो:—उनके; अनुग्रह-अर्थाय— विशेष कृपा करने के प्रयोजन से; शापम्—श्राप; दास्यन्—देने की इच्छा से; इदम्—यह; जगौ—उच्चारित किया ।.
 
अनुवाद
 
 देवताओं के दोनों पुत्रों को नंगा तथा ऐश्वर्य और झूठी प्रतिष्ठा गर्व के नशे में उन्मत्त देखकर देवर्षि नारद ने उन पर विशेष कृपा करने हेतु उन्हें विशेष शाप देना चाहा। अत: वे इस प्रकार बोले।
 
तात्पर्य
 यद्यपि प्रारम्भ में अत्यन्त क्रुद्ध होने के कारण नारद ने शाप दे डाला किन्तु अन्त में नलकूवर तथा मणिग्रीव दोनों को भगवान् कृष्ण का साक्षात् दर्शन हो सका। इस तरह शाप अन्ततोगत्वा शुभ सिद्ध हुआ। हमें यह देखना होगा कि नारद ने उन्हें किस तरह का शाप दिया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने एक सुन्दर उदाहरण दिया है। जब पिता देखता है कि बच्चा गहरी नींद में सोया हुआ है किन्तु उसे किसी बीमारी के इलाज के लिए कोई दवा पीनी है, तो पिता चिकोटी काट कर बच्चे को उठाता है, जिससे वह दवा पी सके। इसी तरह नारदमुनि ने नलकूवर तथा मणिग्रीव के भौतिक-अन्धता के रोग को ठीक करने के लिए उन्हें शाप दिया।
 
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