श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 10: यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार  » 
 
 
 
संक्षेप विवरण
 
 इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस प्रकार कृष्ण ने यमलार्जुन वृक्षों को गिरा दिया जिनसे नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक कुवेर के दो पुत्र प्रकट हुए।
नलकूवर तथा मणिग्रीव शिवजी के महान् भक्त थे किन्तु भौतिक ऐश्वर्य के कारण वे इतने बहुव्ययी तथा विवेकहीन हो गये कि एक दिन वे सरोवर में नग्न युवतियों के साथ किलोलें कर रहे थे और निर्लज्जतापूर्वक इधर-उधर विचरण करने लगे। सहसा नारदमुनि उधर से निकले किन्तु वे दोनों अपने ऐश्वर्य और मिथ्या प्रतिष्ठा से इतने मदान्ध हो चुके थे कि नारदमुनि को देखकर भी वे नंगे ही रहे और तनिक भी नहीं लजाये। दूसरे शब्दों में, वे ऐश्वर्य तथा झूठी प्रतिष्ठा के कारण सामान्य शिष्टाचार भी भूल गये। वस्तुत: भौतिक गुणों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि जब मनुष्य धन और प्रतिष्ठा की दृष्टि से अत्यन्त ऐश्वर्यवान हो जाता है, तब वह शिष्टाचार भूल जाता है और नारदमुनि जैसे मुनियों की भी परवाह नहीं करता। ऐसे मोहग्रस्त व्यक्तियों के लिए (अहंकार विमूढात्मा ), विशेष रूप से जो भक्तों का उपहास करते हैं, उचित दण्ड यही है कि वे फिर से दरिद्र बन जाँय। वैदिक विधि-विधान बतलाते हैं कि किस प्रकार यम, नियम इत्यादि के अभ्यास से मिथ्या प्रतिष्ठा के भाव पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है (तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च )। एक निर्धन व्यक्ति को आसानी से आश्वस्त किया जा सकता है कि इस भौतिक जगत में ऐश्वर्यशाली पद क्षणिक होता है किन्तु धनी व्यक्ति को नहीं। अत: नारदमुनि ने इन दोनों व्यक्तियों—नलकूवर तथा मणिग्रीव—को वृक्षों की तरह अचेतन बनने का शाप देकर एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया। यह बहुत ही उपयुक्त दण्ड था। किन्तु कृष्ण अतीव कृपालु हैं। अत: दण्डित होने पर भी दोनों भाई इतने भाग्यशाली निकले कि उन्हें भगवान् का साक्षात्कार हो सका। अत: वैष्णवों द्वारा दिया गया दण्ड, दण्ड नहीं प्रत्युत दया का अन्य रूप होता है। देवर्षि के शाप से नलकूवर तथा मणिग्रीव यमल अर्जुन वृक्ष बन गये और माता यशोदा तथा नन्द महाराज के आँगन में कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन करने की प्रतीक्षा करते रहे। भगवान् कृष्ण ने अपने भक्त की इच्छा से इन यमलार्जुन वृक्षों को गिरा दिया और जब १०० वर्षों के बाद नलकूवर तथा मणिग्रीव का इस तरह उद्धार हो गया तो उनकी पुरानी चेतना जागृत हो उठी और उन्होंने देवोचित विधि से स्तुति की। इस प्रकार कृष्ण का साक्षात्कार करने का अवसर पाकर ही वे यह समझ सके कि नारदमुनि कितने कृपालु थे। फलत: उन्होंने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और उन्हें धन्यवाद दिया। इसके बाद भगवान् कृष्ण की परिक्रमा करके वे अपने अपने धाम चले गये।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥