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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 12: अघासुर का वध  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में अघासुर वध नामक कृष्ण-लीला का विस्तार से वर्णन हुआ है। एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार गोष्ठी (पिकनिक) करनी चाही अतएव वे प्रात:काल ही अन्य ग्वालबालों...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवा करना चाहा। उन्होंने बड़े सुबह उठ कर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज से ग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया। फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहों को आगे करके व्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।
 
श्लोक 2:  उस समय लाखों ग्वालबाल व्रजभूमि में अपने अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले। ये बालक अतीव सुन्दर थे। उनके पास कलेवा की पोटली, बिगुल, वंशी तथा बछड़े चराने की लाठियाँ थीं।
 
श्लोक 3:  कृष्ण ग्वालबालों तथा उनके बछड़ों के समूहों के साथ बाहर निकले तो असंख्य बछड़े एकत्र हो गये। तब सारे लडक़ों ने जंगल में परम प्रसन्न होकर खेलना प्रारम्भ कर दिया।
 
श्लोक 4:  यद्यपि इन बालकों की माताओं ने पहले से इन्हें काच, गुञ्जा, मोती तथा सोने के आभूषणों से सजा रखा था किन्तु फिर भी जंगल में जाकर उन्होंने फलों, हरी पत्तियों, फूलों के गुच्छों, मोरपंखों तथा गेरू से अपने को सजाया।
 
श्लोक 5:  सारे ग्वालबाल एक-दूसरे की कलेवा की पोटली चुराने लगे। जब कोई बालक जान जाता कि उसकी पोटली चुरा ली गयी है, तो दूसरे लडक़े उसे दूर फेंक देते और वहाँ पर खड़े बालक उसे और दूर फेंक देते। जब पोटली का मालिक निराश हो जाता तो दूसरे बालक हँस पड़ते और मालिक रो देता तब वह पोटली उसे लौटा दी जाती।
 
श्लोक 6:  कभी कभी कृष्ण जंगल की शोभा देखने के लिए दूर तक निकल जाते। तो सारे बालक उनके साथ जाने के लिए, यह कहते हुए दौते, “दौड़ कर कृष्ण को छूने वाला मैं पहला हूँगा! मैं कृष्ण को सबसे पहले छुऊँगा।” इस तरह वे कृष्ण को बारम्बार छू-छू कर जीवन का आनन्द लेते।
 
श्लोक 7-11:  सारे बालक भिन्न भिन्न कार्यों में व्यस्त थे। कुछ अपनी बाँसुरियाँ बजा रहे थे, कुछ सींग का बिगुल बजा रहे थे। कुछ भौरों की गुंजार की नकल तो अन्य बालक कोयल की कुहू कुहू की नकल कर रहे थे। कुछ बालक उड़ती चिडिय़ों की भूमि पर पडऩे वाली परछाइयों के पीछे दौड़ कर उनकी नकल कर रहे थे, तो कुछ हंसों की सुन्दर गति तथा उनकी आकर्षक मुद्राओं की नकल उतार रहे थे। कुछ चुपचाप बगुलों के पास बैठ गये और अन्य बालक मोरों के नाच की नकल करने लगे। कुछ बालकों ने वृक्षों के बन्दरों को आकृष्ट किया, कुछ इन बन्दरों की नकल करतेहुए पेड़ों पर कूदने लगे। कुछ बन्दरों जैसा मुँह बनाने लगे और कुछ एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने लगे। कुछ बालक झरने के पास गये और उन्होंने मेंढक़ों के साथ उछलते हुए नदी पार की और पानी में अपनी परछाईं देख कर वे हँसने लगे। वे अपनी प्रतिध्वनि की आवाज की निन्दा करते। इस तरह सारे बालक उन कृष्ण के साथ खेला करते जो ब्रह्मज्योति में लीन होने के इच्छुक ज्ञानियों के लिए उसके उद्गम हैं और उन भक्तों के लिए भगवान् हैं जिन्होंने नित्यदासता स्वीकार कर रखी है किन्तु सामान्य व्यक्तियों के लिए वे ही एक सामान्य बालक हैं। ग्वालबालों ने अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों का फल संचित कर रखा था फलत: वे इस तरह भगवान् के साथ रह रहे थे। भला उनके इस महाभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है?
 
श्लोक 12:  भले ही योगी अनेक जन्मों तक यम, नियम, आसन तथा प्राणायाम द्वारा जिनमें से कोई भी सरलता से नहीं किया जा सकता है, कठोर से कठोर तपस्या करें फिर भी समय आने पर जब इन योगियों को मन पर नियंत्रण करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो भी वे भगवान् के चरणकमलों की धूल के एक कण तक का आस्वाद नहीं कर सकते। तो भला व्रजभूमि वृन्दावन के निवासियों के महाभाग्य के विषय में क्या कहा जाय जिनके साथ साथ साक्षात् भगवान् रहे और जिन्होंने उनका प्रत्यक्ष दर्शन किया?
 
श्लोक 13:  हे राजा परीक्षित, तत्पश्चात् वहाँ पर एक विशाल असुर प्रकट हुआ जिसका नाम अघासुर था और देवता तक जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। यद्यपि देवता प्रतिदिन अमृत-पान करते थे फिर भी वे इस महान् असुर से डरते थे और उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा में थे। यह असुर जंगल में ग्वालबालों द्वारा मनाये जा रहे दिव्य आनन्द को सहन नहीं कर सका।
 
श्लोक 14:  कंस द्वारा भेजा गया अघासुर पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई था। अतएव जब वह आया और उसने देखा कि कृष्ण सारे ग्वालबालों का मुखिया है, तो उसने सोचा, “इस कृष्ण ने मेरी बहन पूतना तथा मेरे भाई बकासुर का वध किया है। अतएव इन दोनों को तुष्ट करने के लिए मैं इस कृष्ण को इसके सहायक अन्य ग्वालबालों समेत मार डालूँगा।”
 
श्लोक 15:  अघासुर ने सोचा: यदि मैं किसी तरह कृष्ण तथा उनके संगियों को अपने भाई तथा बहिन की दिवंगत आत्माओं के लिए तिल तथा जल की अन्तिम भेंट बना सकूँ तो व्रजभूमि के सारे वासी, जिनके लिए ये बालक प्राणों के तुल्य हैं, स्वयमेव मर जायेंगे। यदि प्राण नहीं रहेंगे तो फिर शरीर की क्या आवश्यकता? फलस्वरूप अपने अपने पुत्रों के मरने पर व्रज के सारे वासी स्वत: मर जायेंगे।
 
श्लोक 16:  यह निश्चय करने के बाद उस दुष्ट अघासुर ने एक विशाल अजगर का रूप धारण कर लिया, जो विशाल पर्वत की तरह मोटा तथा आठ मील तक लम्बा था। इस तरह अद्भुत अजगर का शरीर धारण करने के बाद उसने अपना मुँह पर्वत की एक बड़ी गुफा के तुल्य फैला दिया और रास्ते में कृष्ण तथा उनके संगी ग्वालबालों को निगल जाने की आशा से लेट गया।
 
श्लोक 17:  उसका निचला होठ पृथ्वी पर था और ऊपरी होठ आकाश के बादलों को छू रहा था। उसके मुख की बगलें पर्वत की विशाल गुफाओं के समान थीं और मुख का मध्य भाग अत्यन्त अंधकारमय था। उसकी जीभ चौ मार्ग के तुल्य थी, उसकी श्वास गर्म हवा जैसी थी और उसकी आँखें आग की लपटों जैसी जल रही थीं।
 
श्लोक 18:  इस असुर का अद्भुत रूप विशाल अजगर के समान था। इसे देख कर बालकों ने सोचा कि हो न हो यह वृन्दावन का कोई रम्य स्थल है। तत्पश्चात् उन्होंने कल्पना की कि यह विशाल अजगर के मुख के समान है। दूसरे शब्दों में, निर्भीक बालकों ने सोचा कि विशाल अजगर रूपी यह मूर्ति उनके क्रीड़ा-आनन्द के लिए बनाई गई है।
 
श्लोक 19:  बालकों ने कहा : मित्रो, क्या यह मृत है या सचमुच यह जीवित अजगर है, जिसने हम सबों को निगलने के लिए अपना मुँह फैला रखा है? इस सन्देह को दूर करो न!
 
श्लोक 20:  तत्पश्चात् उन्होंने निश्चय किया : मित्रो, यह निश्चित रूप से हम सबों को निगल जाने के लिए यहाँ बैठा हुआ कोई पशु है। इसका ऊपरी होंठ सूर्य की धूप से रक्तिम हुए बादल की तरह है और निचला होंठ बादल की लाल-लाल परछाईं-सा लगता है।
 
श्लोक 21:  बाएँ तथा दाएँ दो खड्ड जैसी पर्वत-गुफाएँ दिखती हैं, वे इसकी गलफड़ें हैं और पर्वत की ऊँची चोटियाँ इसके दाँत हैं।
 
श्लोक 22:  इस पशु की जीभ की लम्बाई-चौड़ाई चौे मार्ग जैसी है और इसके मुख का भीतरी भाग अत्यन्त अंधकारमय है मानो पर्वत के भीतर की गुफा हो।
 
श्लोक 23:  यह अग्नि जैसी गर्म हवा उसके मुँह से निकली हुई श्वास है, जिससे जलते हुए मांस की दुर्गंध आ रही है क्योंकि उसने बहुत शव खा रखे हैं।
 
श्लोक 24:  तब बालकों ने कहा, “क्या यह प्राणी हम लोगों को निगलने आया है? यदि वह निगलेगा तो तुरन्त ही बकासुर की भाँति मार डाला जायेगा।” इस तरह उन्होंने बकासुर के शत्रु कृष्ण के सुन्दर मुख की ओर निहारा और ताली बजा कर जोर-जोर से हँसते हुए वे अजगर के मुँह में प्रविष्ट हो गये।
 
श्लोक 25:  हर व्यक्ति के हृदय में स्थित अन्तर्यामी परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने बालकों को परस्पर नकली अजगर के विषय में बातें करते सुना। वे नहीं जानते थे कि यह वास्तव में अघासुर था, जो अजगर के रूप में प्रकट हुआ था। यह जानते हुए कृष्ण अपने मित्रों को असुर के मुख में प्रवेश करने से रोकना चाहते थे।
 
श्लोक 26:  जब तक कि कृष्ण सारे बालकों को रोकने के बारे में सोचें, तब तक वे सभी असुर के मुख में घुस गये। किन्तु उस असुर ने उन्हें निगला नहीं क्योंकि वह कृष्ण द्वारा मारे गये अपने सम्बन्धियों के विषय में सोच रहा था और अपने मुख में कृष्ण के घुसने की प्रतीक्षा कर रहा था।
 
श्लोक 27:  कृष्ण ने देखा कि सारे ग्वालबाल, जो उन्हें ही अपना सर्वस्व मानते थे, उनके हाथ से निकल कर साक्षात् मृत्यु रूपी अघासुर के उदर की अग्नि में तिनकों जैसे प्रविष्ट हो जाने से असहाय हैं। कृष्ण के लिए अपने इन ग्वालबाल मित्रों से विलग होना असह्य था। अतएव यह देखते हुए कि यह सब उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा नियोजित किया प्रतीत होता है, कृष्ण आश्चर्यचकित हो उठे और निश्चय न कर पाये कि क्या किया जाय।
 
श्लोक 28:  अब क्या करना होगा? इस असुर का वध और भक्तों का बचाव—एकसाथ दोनों को किस तरह सम्पन्न किया जाय? असीम शक्तिशाली होने से कृष्ण ने ऐसी बुद्धिगम्य युक्ति निकल आने तक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया जिसके द्वारा वे बालकों को बचाने के साथ साथ उस असुर का वध भी कर सकें। तत्पश्चात् वे अघासुर के मुख में घुस गये।
 
श्लोक 29:  जब कृष्ण अघासुर के मुख में घुस गये तो बादलों के पीछे छिपे देवतागण हाय हाय करने लगे। किन्तु अघासुर के मित्र, यथा कंस तथा अन्य असुरगण अत्यन्त हर्षित थे।
 
श्लोक 30:  जब अजेय भगवान् कृष्ण ने देवताओं को बादलों के पीछे से हाय हाय पुकारते सुना तो तुरन्त ही उन्होंने स्वयं तथा अपने संगी ग्वालबालों को असुर से बचाने के लिए, जिन्हें वह चूर्ण- चूर्ण कर देना चाहता था, उसके गले के भीतर अपना विस्तार कर लिया।
 
श्लोक 31:  चूँकि कृष्ण ने अपने शरीर का आकार बढ़ा दिया था इसलिए असुर ने अपने शरीर को काफी बड़ा कर लिया। फिर भी उसकी श्वास रुक गई उसका दम घुट गया और उसकी आँखें इधर-उधर भटकने लगीं तथा बाहर निकल आईं। किन्तु असुर के प्राण किसी भी छेद से निकल नहीं पा रहे थे अत: अन्त में उसके सिर के ऊपरी छेद से बाहर फूट पड़े।
 
श्लोक 32:  जब उस असुर के सिर के ऊपरी छेद से सारी प्राणवायु निकल गई तो कृष्ण ने मृत बछड़ों तथा ग्वालबालों पर अपनी दृष्टि फेर कर उन्हें फिर से जीवित कर दिया। तब मुकुन्द जो किसी को भी मुक्ति दे सकते हैं अपने मित्रों तथा बछड़ों समेत उस असुर के मुख से बाहर आ गये।
 
श्लोक 33:  उस विराट अजगर के शरीर से सारी दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ एक प्रकाशमान तेज निकला और आकाश में अकेले तब तक रुका रहा जब तक कृष्ण उस शव के मुख से बाहर नहीं आ गये। तत्पश्चात् सारे देवताओं ने इस तेज को कृष्ण के शरीर में प्रवेश करते देखा।
 
श्लोक 34:  तत्पश्चात् हर एक के प्रसन्न होने पर देवता लोग नन्दन कानन से फूल बरसाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं और गायन के लिए प्रसिद्ध गन्धर्वगण स्तुति गाने लगे। ढोलकिये दुन्दुभी बजाने लगे तथा ब्राह्मण वैदिक स्तुतियाँ करने लगे। इस प्रकार स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों पर हर व्यक्ति भगवान् की महिमा का गायन करते हुए अपना अपना कार्य करने लगा।
 
श्लोक 35:  जब भगवान् ब्रह्मा ने अपने लोक के निकट ही ऐसा अद्भुत उत्सव होते सुना, जिसके साथ साथ संगीत, गीत तथा जयजयकार हो रहा था, तो वे तुरन्त उस उत्सव को देखने चले आये। कृष्ण का ऐसा गुणगान देखकर वे अत्यन्त विस्मित थे।
 
श्लोक 36:  हे राजा परीक्षित, जब अघासुर का अजगर के आकार का शरीर सूख कर विशाल चमड़ा बन गया तो यह वृन्दावनवासियों के देखने जाने के लिए अद्भुत स्थान बन गया और ऐसा बहुत समय तक बना रहा।
 
श्लोक 37:  स्वयं तथा अपने साथियों को मृत्यु से बचाने तथा अजगर रूप अघासुर को मोक्ष देने की घटना तब घटी जब कृष्ण पाँच वर्ष के थे। इसका उद्धाटन व्रजभूमि में एक वर्ष बाद हुआ मानो यह उसी दिन की घटना हो।
 
श्लोक 38:  कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं। भौतिक जगत—उच्च तथा निम्न जगत—के कार्य- कारण आदि नियन्ता भगवान् द्वारा ही सृजित होते हैं। जब कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा के पुत्र रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसा किया। अत: उनके लिए अपने असीम ऐश्वर्य का प्रदर्शन कोई विचित्र बात न थी। हाँ, उन्होंने ऐसी महती कृपा प्रदर्शित की कि सर्वाधिक पापी दुष्ट अघासुर भी ऊपर उठ गया और उनके संगियों में से एक बन गया और उसने सारूप्य मुक्ति प्राप्त की जो वस्तुत: भौतिक कलुषों से युक्त पुरुषों के लिए प्राप्त कर पाना असम्भव है।
 
श्लोक 39:  यदि कोई केवल एक बार या बलपूर्वक भी अपने मन में भगवान् के स्वरूप को लाता है, तो उसे कृष्ण की दया से परम मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जिस प्रकार अघासुर को प्राप्त हुआ। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जिनके हृदयों में भगवान् अवतार लेकर प्रविष्ट होते हैं अथवा उनका जो सदैव भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करते रहते हैं, जो सारे जीवों के लिए दिव्य आनन्द के स्रोत हैं और जो सारे मोह को पूरी तरह हटा देते हैं?
 
श्लोक 40:  श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे विद्वान सन्तो, श्रीकृष्ण की बाल्यकाल की लीलाएँ अत्यन्त अद्भुत हैं। महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में उन्हें बचाने वाले कृष्ण की उन लीलाओं के विषय में सुन कर स्थिरचित्त हो गये और उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से फिर कहा कि वे उन पुण्य लीलाओं को सुनायें।
 
श्लोक 41:  महाराज परीक्षित ने पूछा: हे मुनि, भूतकाल में घटित इन घटनाओं को वर्तमान में घटित होते क्यों वर्णन किया गया है? भगवान् कृष्ण ने अघासुर को मारने का कार्य तो अपनी कौमारावस्था में सम्पन्न किया था। तो फिर बालकों ने, उनकी पौगण्ड अवस्था में, इस घटना को अभी घटित क्यों बतलाया?
 
श्लोक 42:  हे महायोगी, मेरे आध्यात्मिक गुरु, कृपा करके बतलायें कि यह कैसे हुआ? मैं यह जानने के लिए परम उत्सुक हूँ। मैं सोचता हूँ कि यह कृष्ण की अन्य माया के अतिरिक्त और कुछ न था।
 
श्लोक 43:  हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु, यद्यपि हम क्षत्रियों में निम्नतम हैं, फिर भी हमारा अहोभाग्य है कि हम लाभान्वित हुए हैं क्योंकि हमें आपसे भगवान् के अमृतमय पवित्र कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण करते रहने का अवसर प्राप्त हुआ है।
 
श्लोक 44:  सूत गोस्वामी ने कहा, “हे सन्तों तथा भक्तों में सर्वश्रेष्ठ शौनक, जब महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से इस तरह पूछा तो तुरन्त अपने अन्त:करण में कृष्ण-लीलाओं का स्मरण करते हुए अपनी इन्द्रियों के कार्यों से उनका बाह्य सम्पर्क टूट गया। तत्पश्चात् बड़ी मुश्किल से उनकी बाह्य चेतना वापस आयी और वे कृष्ण-कथा के विषय में महाराज परीक्षित से बातें करने लगे।
 
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