इदं हि पुंसस्तपस: श्रुतस्य वा स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयो:। अविच्युतोऽर्थ: कविभिर्निरूपितो यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ॥ “विद्वान मुनियों ने निश्चित निष्कर्ष निकाला है कि ज्ञान, तप, वैदिक अध्ययन, यज्ञ, स्तुति तथा दान की उन्नति का अमोघ उद्देश्य भगवान् के गुणों का उत्तम श्लोकों में दिव्य वर्णन करना है।” (भागवत १.५.२२)। यही जीवन की सिद्धि है। मनुष्य को उसके अपने गुणों के अनुसार भगवान् के गुणगान करने की शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा, तप या आधुनिक जगत में व्यापार, उद्योग, शिक्षा आदि—इन सबको भगवान् के गुणगान में लगाना चाहिए। तभी संसार का हर व्यक्ति सुखी हो सकेगा। इसलिए कृष्ण अपनी दिव्य क्रीड़ाएँ प्रदर्शित करने हेतु आते हैं जिससे लोगों को हर तरह से उनका गुणगान करने का अवसर मिल सके। किन्तु भगवान् का गुणगान किस तरह किया जाय यह समझ पाना शोध का विषय है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर के बिना हर बात समझी जा सके। इसकी निन्दा की जाती है। भगवद्भक्तिहीनस्य जाति: शास्त्रं जपस्तप:। अप्राणस्यैव देहस्य मण्डनं लोकरञ्जनम् ॥ (हरिभक्ति सुधोदय ३.११) भगवद्भक्ति अथवा भगवान् के गुणगान के बिना हमारे पास जो भी है, वह शव को सजाने के समान है। |