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अध्याय 13: ब्रह्मा द्वारा बालकों तथा बछड़ों की चोरी
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में ब्रह्माजी द्वारा ग्वालबालों तथा बछड़ों को चुराने के प्रयास के वर्णन के साथ ही ब्रह्माजी के मोहित होने तथा मोह के हटने का वर्णन हुआ है।
यद्यपि अघासुर... |
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श्लोक 1: श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान् की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यों को नित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो। |
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श्लोक 2: जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परमहंस भक्त अपने अन्त:करण से कृष्ण के प्रति अनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं। प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करना उनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों। वे इन कथाओं के प्रति उसी तरह अनुरक्त रहते हैं जिस तरह भौतिकतावादी लोग स्त्रियों तथा विषय-वासना की चर्चाओं में रस लेते हैं। |
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श्लोक 3: हे राजन्, मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें। यद्यपि भगवान् की लीलाएँ अत्यन्त गुह्य हैं और सामान्य व्यक्ति उन्हें नहीं समझ सकता किन्तु मैं तुमसे उनके विषय में कहूँगा क्योंकि गुरुजन विनीत शिष्य को गुह्य से गुह्य तथा कठिन से कठिन विषयों को भी बता देते हैं। |
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श्लोक 4: मृत्यु रूप अघासुर के मुख से बालकों तथा बछड़ों को बचाने के बाद भगवान् कृष्ण उन सब को नदी के तट पर ले आये और उनसे निम्नलिखित शब्द कहे। |
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श्लोक 5: मित्रो, देखो न, यह नदी का किनारा अपने मोहक वातावरण के कारण कितना रम्य लगता है! देखो न, खिले कमल किस तरह अपनी सुगन्ध से भौरों तथा पक्षियों को आकृष्ट कर रहे हैं। भौरों की गुनगुनाहट तथा पक्षियों की चहचहाहट जंगल के सभी सुन्दर वृक्षों से प्रतिध्वनित हो रही है। और यहाँ की बालू साफ तथा मुलायम है। अत: हमारे खेल तथा हमारी लीलाओं के लिए यह सर्वोत्तम स्थान है। |
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श्लोक 6: मेरे विचार में हम यहाँ भोजन करें क्योंकि विलम्ब हो जाने से हम भूखे हो उठे हैं। यहाँ बछड़े पानी पी सकते हैं और धीरे धीरे इधर-उधर जाकर घास चर सकते हैं। |
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श्लोक 7: भगवान् कृष्ण के प्रस्ताव को मान कर ग्वालबालों ने बछड़ों को नदी में पानी पीने दिया और फिर उन्हें वृक्षों से बाँध दिया जहाँ हरी मुलायम घास थी। तब बालकों ने अपने भोजन की पोटलियाँ खोलीं और दिव्य आनन्द से पूरित होकर कृष्ण के साथ खाने लगे। |
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श्लोक 8: जिस तरह पंखडिय़ों तथा पत्तियों से घिरा हुआ कोई कमल-पुष्प कोश हो उसी तरह बीच में कृष्ण बैठे थे और उन्हें घेर कर पंक्तियों में उनके मित्र बैठे थे। वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। उनमें से हर बालक यह सोच कर कृष्ण की ओर देखने का प्रयास कर रहा था कि शायद कृष्ण भी उसकी ओर देखें। इस तरह उन सबों ने जंगल में भोजन का आनन्द लिया। |
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श्लोक 9: ग्वालबालों में से किसी ने अपना भोजन फूलों पर, किसी ने पत्तियों, फलों या पत्तों के गुच्छों पर, किसी ने वास्तव में ही अपनी डलिया में, तो किसी ने पेड़ की खाल पर तथा किसी ने चट्टानों पर रख लिया। बालकों ने खाते समय इन्हें ही अपनी प्लेटें (थालियाँ) मान लिया। |
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श्लोक 10: अपने अपने घर से लाये गये भोजन की किस्मों के भिन्न भिन्न स्वादों को एक-दूसरे को बतलाते हुए सारे ग्वालों ने कृष्ण के साथ भोजन का आनन्द लिया। वे एक-दूसरे का भोजन चख-चख कर हँसने तथा हँसाने लगे। |
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श्लोक 11: कृष्ण यज्ञ-भुक् हैं—अर्थात् वे केवल यज्ञ की आहुतियाँ ही खाते हैं किन्तु अपनी बाल लीलाएँ प्रदर्शित करने के लिए वे अपनी वंशी को अपनी कमर तथा दाहिनी ओर कसे वस्त्र के बीच तथा सींग के बिगुल और गाय चराने की लाठी को बाईं ओर खोंस कर बैठ गये। वे अपने हाथ में दही तथा चावल का बना सुन्दर व्यंजन लेकर और अपनी अँगुलियों के बीच में उपयुक्त फलों के टुकड़े पकडक़र इस तरह बैठे थे जैसे कमल का कोश हो। वे आगे की ओर अपने सभी मित्रों को देख रहे थे और खाते-खाते उनसे उपहास करते जाते थे जिससे सभी ठहाका लगा रहे थे। उस समय स्वर्ग के निवासी देख रहे थे और आश्चर्यचकित थे कि किस तरह यज्ञ भुक् भगवान् अब अपने मित्रों के साथ जंगल में बैठ कर खाना खा रहे हैं। |
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श्लोक 12: हे महाराज परीक्षित, एक ओर जहाँ अपने हृदय में कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को न जानने वाले ग्वालबाल जंगल में भोजन करने में इस तरह व्यस्त थे वहीं दूसरी ओर बछड़े हरी घास से ललचाकर दूर घने जंगल में चरने निकल गये। |
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श्लोक 13: जब कृष्ण ने देखा कि उनके ग्वालबाल मित्र डरे हुए हैं, तो भय के भी भीषण नियन्ता उन्होंने उनके भय को दूर करने के लिए कहा, “मित्रो, खाना मत बन्द करो। मैं स्वयं जाकर तुम्हारे बछड़ों को इसी स्थान में वापस लाये दे रहा हूँ।” |
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श्लोक 14: कृष्ण ने कहा, “मुझे जाकर बछड़े ढूँढऩे दो। अपने आनन्द में खलल मत डालो।” फिर हाथ में दही तथा चावल लिए, भगवान् कृष्ण तुरन्त ही अपने मित्रों के बछड़ों को खोजने चल पड़े। वे अपने मित्रों को तुष्ट करने के लिए सारे पर्वतों, गुफाओं, झाडिय़ों तथा सँकरे मार्गों में खोजने लगे। |
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श्लोक 15: हे महाराज परीक्षित, स्वर्गलोक में वास करने वाले ब्रह्मा ने अघासुर के वध करने तथा मोक्ष देने के लिए सर्वशक्तिमान कृष्ण के कार्यकलापों को देखा था और वे अत्यधिक चकित थे। अब वही ब्रह्मा कुछ अपनी शक्ति दिखाना और उस कृष्ण की शक्ति देखना चाह रहे थे, जो मानो सामान्य ग्वालबालों के साथ खेलते हुए अपनी बाल-लीलाएँ कर रहे थे। इसलिए कृष्ण की अनुपस्थिति में ब्रह्मा सारे बालकों तथा बछड़ों को किसी दूसरे स्थान पर लेकर चले गये। इस तरह वे फँस गये क्योंकि निकट भविष्य में वे देखेंगे कि कृष्ण कितने शक्तिशाली हैं। |
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श्लोक 16: तत्पश्चात् जब कृष्ण बछड़ों को खोज न पाये तो वे यमुना के तट पर लौट आये किन्तु वहाँ भी उन्होंने ग्वालबालों को नहीं देखा। इस तरह वे बछड़ों तथा बालकों को ऐसे ढूँढऩे लगे, मानों उनकी समझ में न आ रहा हो कि यह क्या हो गया। |
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श्लोक 17: जब कृष्ण बछड़ों तथा उनके पालक ग्वालबालकों को जंगल में कहीं भी ढूँढ़ न पाये तो वे तुरन्त समझ गये कि यह ब्रह्मा की ही करतूत है। |
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श्लोक 18: तत्पश्चात् बह्मा को तथा बछड़ों एवं ग्वालबालों की माताओं को आनन्दित करने के लिए, समस्त ब्रह्माण्ड के स्रष्टा कृष्ण ने बछड़ों तथा बालकों के रूप में अपना विस्तार कर लिया। |
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श्लोक 19: अपने वासुदेव रूप में कृष्ण ने खोये हुए ग्वाल-बालकों तथा बछड़ों की जितनी संख्या थी, उतने ही वैसे ही शारीरिक स्वरूपों, उसी तरह के हाथों, पाँवों तथा अन्य अंगों वाले, उनकी लाठियों, तुरहियों तथा वंशियों, उनके भोजन के छींकों, विभिन्न प्रकार से पहनी हुईं उनकी विशेष वेशभूषाओं तथा गहनों, उनके नामों, उम्रों तथा विशेष कार्यकलापों एवं गुणों से युक्त स्वरूपों में अपना विस्तार कर लिया। इस प्रकार अपना विस्तार करके सुन्दर कृष्ण ने यह उक्ति सिद्ध कर दी—समग्र जगद् विष्णुमयम्—भगवान् विष्णु सर्वव्यापी हैं। |
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श्लोक 20: इस तरह अपना विस्तार करने के बाद जिससे वे सभी बछड़ों तथा बालकों की तरह लगें और साथ ही उनके अगुवा भी लगें, कृष्ण ने अब अपने पिता नन्द महाराज की व्रजभूमि में इस तरह प्रवेश किया जिस तरह वे उन सबके साथ आनन्द मनाते हुए सामान्यतया किया करते थे। |
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श्लोक 21: हे महाराज परीक्षित, जिन कृष्ण ने अपने को विभिन्न बछड़ों तथा भिन्न भिन्न ग्वालबालों में विभक्त कर लिया था वे अब बछड़ों के रूप में विभिन्न गोशालाओं में और फिर विभिन्न बालकों के रूपों में विभिन्न घरों में घुसे। |
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श्लोक 22: बालकों की माताओं ने अपने अपने पुत्रों की वंशियों तथा बिगुलों की ध्वनि सुन कर अपना अपना गृहकार्य छोड़ कर उन्हें गोदों में उठा लिया, दोनों बाँहों में भर कर उनका आलिंगन किया और प्रगाढ़ प्रेम के कारण, विशेष रूप से कृष्ण के प्रति प्रेम के कारण स्तनों से बह रहा दूध वे उन्हें पिलाने लगीं। वस्तुत: कृष्ण सर्वस्व हैं लेकिन उस समय अत्यधिक स्नेह व्यक्त करती हुईं वे परब्रह्म कृष्ण को दूध पिलाने में विशेष आनन्द का अनुभव करने लगीं और कृष्ण ने उन माताओं का क्रमश: दूध पिया मानो वह अमृतमय पेय हो। |
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श्लोक 23: तत्पश्चात्, हे महाराज परीक्षित, अपनी लीलाओं के कार्यक्रमानुसार कृष्ण शाम को लौटते, हर ग्वालबाल के घर घुसते और असली बच्चों की तरह कार्य करते जिससे उनकी माताओं को दिव्य आनन्द प्राप्त होता। माताएँ अपने बालकों की देखभाल करतीं, उन्हें तेल लगातीं, उन्हें नहलातीं, चन्दन का लेप लगातीं, गहनों से सजातीं, रक्षा-मंत्र पढ़तीं, उनके शरीर पर तिलक लगातीं और उन्हें भोजन करातीं। इस तरह माताएँ अपने हाथों से कृष्ण की सेवा करतीं। |
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श्लोक 24: तत्पश्चात् सारी गौवें अपने अपने गोष्ठों में घुसतीं और अपने अपने बछड़ों को बुलाने के लिए जोर से रँभाने लगतीं। जब बछड़े आ जाते तो माताएँ उनके शरीरों को बारम्बार चाटतीं और उन्हें अपने थनों से बह रहा प्रचुर दूध पिलातीं। |
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श्लोक 25: प्रारम्भ से ही गोपियों का कृष्ण के प्रति मातृवत स्नेह था। कृष्ण के प्रति उनका यह स्नेह अपने पुत्रों के प्रति स्नेह से भी अधिक था। इस तरह अपने स्नेह-प्रदर्शन में वे कृष्ण तथा अपने पुत्रों में भेद बरतती थीं किन्तु अब वह भेद दूर हो चुका था। |
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श्लोक 26: यद्यपि व्रजभूमि के सारे निवासियों—ग्वालों तथा गोपियों—में पहले से ही कृष्ण के लिए अपने निजी पुत्रों से अधिक स्नेह था किन्तु अब एक वर्ष तक उनके अपने पुत्रों के प्रति यह स्नेह लगातार बढ़ता ही गया क्योंकि अब कृष्ण उनके पुत्र बन चुके थे। अब अपने पुत्रों के प्रति, जो कि कृष्ण ही थे, उनके प्रेम की वृद्धि का कोई वारापार न था। नित्य ही उन्हें अपने पुत्रों से कृष्ण जितना प्रेम करने की नई प्रेरणा प्राप्त हो रही थी। |
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श्लोक 27: इस तरह अपने को ग्वालबालों तथा बछड़ों का समूह बना लेने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपने को उसी रूप में बनाये रहे। वे उसी प्रकार से वृन्दावन तथा जंगल दोनों ही जगहों में एक वर्ष तक अपनी लीलाएँ करते रहे। |
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श्लोक 28: एक दिन जबकि वर्ष पूरा होने में अभी पाँच-छ: रातें शेष थीं कृष्ण बलराम सहित बछड़ों को चराते हुए जंगल में प्रविष्ट हुए। |
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श्लोक 29: तत्पश्चात् गोवर्धन पर्वत की चोटी पर चरती हुई गौवों ने कुछ हरी घास खोजने के लिए नीचे देखा तो उन्होंने अपने बछड़ों को वृन्दावन के निकट चरते देखा जो अधिक दूरी पर नहीं था। |
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श्लोक 30: जब गायों ने गोवर्धन पर्वत की चोटी से अपने अपने बछड़ों को देखा तो वे अधिक स्नेहवश अपने आप को तथा अपने चराने वालों को भूल गईं और दुर्गम मार्ग होते हुए भी वे अपने बछड़ों की ओर अतीव चिन्तित होकर दौीं मानो वे दो ही पाँवों से दौड़ रही हों। उनके थन दूध से भरे थे और उनमें से दूध बह रहा था, उनके सिर तथा पूछें उठी हुई थीं और उनके डिल्ले (कूबड़) उनकी गर्दन के साथ साथ हिल रहे थे। वे तब तक तेजी से दौड़ती रहीं जब तक वे अपने बच्चों के पास दूध पिलाने पहुँच नहीं गईं। |
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श्लोक 31: गौवों ने नये बछड़ों को जन्म दिया था किन्तु गोवर्धन पर्वत से नीचे आते हुए, अपने पुराने बछड़ों के लिए अतीव स्नेह के कारण इन्हीं बछड़ों को अपने थन का दूध पीने दिया। वे चिन्तित होकर उनका शरीर चाटने लगीं मानो उन्हें निगल जाना चाहती हों। |
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श्लोक 32: गौवों को उनके बछड़ों के पास जाने से रोकने में असमर्थ ग्वाले लज्जित होने के साथ साथ क्रुद्ध भी हुए। उन्होंने बड़ी कठिनाई से दुर्गम मार्ग पार किया किन्तु जब वे नीचे आये और अपने अपने पुत्रों को देखा तो वे अत्यधिक स्नेह से अभिभूत हो गये। |
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श्लोक 33: उस समय ग्वालों के सारे विचार अपने अपने पुत्रों को देखने से उत्पन्न वात्सल्य-प्रेम रस में विलीन हो गये। अत्यधिक आकर्षण का अनुभव करने से उनका क्रोध छू-मन्तर हो गया। उन्होंने अपने पुत्रों को उठाकर बाँहों में भर कर आलिंगन किया और उनके सिरों को सूँघ कर सर्वोच्च आनन्द प्राप्त किया। |
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श्लोक 34: तत्पश्चात् प्रौढ़ ग्वाले अपने पुत्रों के आलिंगन से अत्यन्त तुष्ट होकर बड़ी कठिनाई और अनिच्छा से उनका आलिंगन धीरे धीरे छोड़ कर जंगल लौट आये। किन्तु जब उन्हें अपने पुत्रों का स्मरण हुआ तो उनकी आँखों से आँसू लुढक़ आये। |
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श्लोक 35: स्नेहाधिक्य के कारण गौवों को उन बछड़ों से भी निरन्तर अनुराग था, जो बड़े होने के कारण उनका दूध पीना छोड़ चुके थे। जब बलदेव ने यह अनुराग देखा तो इसका कारण उनकी समझ में नहीं आया अत: वे इस प्रकार सोचने लगे। |
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श्लोक 36: यह विचित्र घटना क्या है? सभी व्रजवासियों का, मुझ समेत. इन बालकों तथा बछड़ों के प्रति अपूर्व प्रेम उसी तरह बढ़ रहा है, जिस तरह सब जीवों के परमात्मा भगवान् कृष्ण के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है। |
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श्लोक 37: यह योगशक्ति कौन है और वह कहाँ से आई है? क्या वह देवी है या कोई राक्षसी है? अवश्य ही वह मेरे प्रभु कृष्ण की माया होगी क्योंकि उसके अतिरिक्त मुझे और कौन मोह सकता है? |
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श्लोक 38: इस प्रकार सोचते हुए बलराम अपने दिव्य ज्ञान के चक्षुओं से देख सके कि ये सारे बछड़े तथा कृष्ण के साथी श्रीकृष्ण के ही अंश हैं। |
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श्लोक 39: भगवान् बलदेव ने कहा, “हे परम नियन्ता, मेरे पहले सोचने के विपरीत ये बालक महान् देवता नहीं हैं न ही ये बछड़े नारद जैसे महान् ऋषि हैं। अब मैं देख सकता हूँ कि तुम्हीं अपने को नाना प्रकार के रूप में प्रकट कर रहे हो। एक होते हुए भी तुम बछड़ों तथा बालकों के विविध रूपों में विद्यमान हो। कृपा करके मुझे यह विस्तार से बतलाओ।” बलदेव द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर कृष्ण ने सारी स्थिति समझा दी और बलदेव उसे समझ भी गये। |
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श्लोक 40: जब ब्रह्मा एक क्षण के बाद (अपनी गणना के अनुसार) वहाँ लौटे तो उन्होंने देखा कि यद्यपि मनुष्य की माप के अनुसार पूरा एक वर्ष बीत चुका है, तो भी कृष्ण उतने समय बाद भी उसी तरह अपने अंशरूप बालकों तथा बछड़ों के साथ खेलने में व्यस्त हैं। |
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श्लोक 41: भगवान् ब्रह्मा ने सोचा: गोकुल के जितने भी बालक तथा बछड़े थे उन्हें मैंने अपनी योगशक्ति की सेज पर सुला रखा है और आज के दिन तक वे जगे नहीं हैं। |
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श्लोक 42: यद्यपि पूरे एक वर्ष तक कृष्ण के साथ उतने ही बालक तथा बछड़े खेलते रहे फिर भी ये मेरी योगशक्ति से मोहित बालकों से भिन्न हैं। ये कौन हैं? ये कहाँ से आये? |
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श्लोक 43: इस तरह दीर्घकाल तक विचार करते करते भगवान् ब्रह्मा ने उन दो प्रकार के बालकों में अन्तर जानने का प्रयास किया जो एक-दूसरे से पृथक् रह रहे थे। वे यह जानने का प्रयास करते रहे कि कौन असली है और कौन नकली है किन्तु वे कुछ भी नहीं समझ पाये। |
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श्लोक 44: चूँकि ब्रह्मा ने सर्वव्यापी भगवान् कृष्ण को, जो कभी मोहित नहीं किये जा सकते अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को मोहित करने वाले हैं, मोहित करना चाहा इसलिए वे स्वयं ही अपनी योगशक्ति द्वारा मोह में फँस गये। |
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श्लोक 45: जिस तरह अँधेरी रात में बर्फ का अँधेरा तथा दिन के समय जुगनू के प्रकाश का कोई महत्व नहीं होता, उसी तरह निकृष्ट व्यक्ति की योगशक्ति महान् शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोग किये जाने पर कुछ भी नहीं कर पाती, उलटे उस निकृष्ट व्यक्ति की शक्ति कम हो जाती है। |
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श्लोक 46: जब ब्रह्मा देख रहे थे तो तुरन्त ही सारे बछड़े तथा उन्हें चराने वाले बालक नीले बादलों के रंग वाले स्वरूप में पीले रेशमी वस्त्र पहने हुए प्रकट होने लगे। |
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श्लोक 47-48: इन सबों के चार हाथ थे जिनमें शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये थे। वे अपने सिरों पर मुकुट पहने थे, उनके कानों में कुंडल और गलों में जंगली फूलों के हार थे। उनके वक्षस्थलों के दाहिनी ओर के ऊपरी भाग में लक्ष्मी का चिन्ह था। वे अपनी बाहों में बाजूबन्द, शंख जैसी तीन रेखाओं से अंकित गलों में कौस्तुभ मणि तथा कलाइयों में कंगन पहने थे। उनके टखनों में पायजेब थीं, पाँवों में आभूषण और कमर में पवित्र करधनी थी। वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। |
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श्लोक 49: पाँव से लेकर सिर तक उनके शरीर के सारे अंग तुलसी दल से बने ताजे मुलायम हारों से पूरी तरह सज्जित थे जिन्हें पुण्यकर्मों (श्रवण तथा कीर्तन) द्वारा भगवान् की पूजा में लगे भक्तों ने अर्पित किया था। |
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श्लोक 50: वे विष्णु रूप जो चंद्रमा के बढ़ते हुए प्रकाश के तुल्य थे, अपनी शुद्ध मुस्कान तथा अपनी लाल-लाल आँखों की तिरछी चितवन के द्वारा, अपने भक्तों की इच्छाओं को, मानो रजोगुण एवं तमोगुण से, उत्पन्न करते तथा पालते थे। |
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श्लोक 51: चतुर्मुख ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र से क्षुद्र जीव, चाहे वे चर हों या अचर, सबों ने स्वरूप प्राप्त कर रखा था और वे अपनी अपनी क्षमताओं के अनुसार नाच तथा गायन जैसी पूजा विधियों से उन विष्णु मूर्तियों की अलग अलग पूजा कर रहे थे। |
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श्लोक 52: वे सारी विष्णु मूर्तियाँ अणिमा इत्यादि सिद्धियों, अजा इत्यादि योगसिद्धियों तथा महत तत्त्व आदि सृष्टि के २४ तत्त्वों से घिरी हुई थीं। |
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श्लोक 53: तब भगवान् ब्रह्मा ने देखा कि काल, स्वभाव, संस्कार, काम, कर्म तथा गुण—ये सभी अपनी स्वतंत्रता खो कर पूर्णतया भगवान् की शक्ति के अधीन होकर स्वरूप धारण किये हुए थे और उन विष्णु मूर्तियों की पूजा कर रहे थे। |
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श्लोक 54: वे समस्त विष्णु मूर्तियाँ शाश्वत, असीम स्वरूपों वाली, ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण एवं काल के प्रभाव से परे थीं। उपनिषदों के अध्ययन में रत ज्ञानीजन भी उनकी महती महिमा का स्पर्श तक नहीं कर सकते थे। |
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श्लोक 55: इस प्रकार भगवान् ब्रह्मा ने परब्रह्म को देखा जिसकी शक्ति से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सारे चर तथा अचर प्राणियों समेत व्यक्त होता है। उन्होंने उसी के साथ ही सारे बछड़ों तथा बालकों को भगवान् के अंशों के रूप में देखा। |
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श्लोक 56: तब उन विष्णु मूर्तियों की तेज शक्ति से ब्रह्मा की ग्यारहों इन्द्रियाँ आश्चर्य से क्षुब्ध तथा दिव्य आनन्द से स्तब्ध हो चुकी थीं अत: वे मौन हो गये मानो ग्राम्य देवता की उपस्थिति में किसी बच्चे की मिट्टी की बनी गुडिय़ा हो। |
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श्लोक 57: परब्रह्म मानसिक तर्क के परे है। वह स्वत: व्यक्त, अपने ही आनन्द में स्थित तथा भौतिक शक्ति के परे है। वह वेदान्त के द्वारा अप्रासंगिक ज्ञान के निरसन करने पर जाना जाता है। इस तरह जिस भगवान् की महिमा विष्णु के सभी चतुर्भुज स्वरूपों की अभिव्यक्ति से प्रकट हुई थी उससे सरस्वती के प्रभु ब्रह्माजी मोहित थे। उन्होंने सोचा, “यह क्या है?” और उसके बाद वे देख भी नहीं पाये। तब भगवान् कृष्ण ने ब्रह्मा की स्थिति समझते हुए तुरन्त ही अपनी योगमाया का परदा हटा दिया। |
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श्लोक 58: तब ब्रह्मा की बाह्य चेतना वापस लौटी और वे इस तरह उठ खड़े हुए मानो मृत व्यक्ति जीवित हो उठा हो। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलते हुए उन्होंने अपने सहित ब्रह्माण्ड को देखा। |
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श्लोक 59: तब सारी दिशाओं में देखने पर भगवान् ब्रह्मा ने तुरन्त अपने समक्ष वृन्दावन देखा जो उन वृक्षों से पूरित था, जो निवासियों की जीविका के साधन थे और सारी ऋतुओं में समान रूप से प्रिय लगने वाले थे। |
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श्लोक 60: वृन्दावन भगवान् का दिव्य धाम है जहाँ न भूख है, न क्रोध, न प्यास। यद्यपि मनुष्यों तथा हिंस्र पशुओं में स्वाभाविक वैर होता है किन्तु वे यहाँ दिव्य मैत्री-भाव से साथ साथ रहते हैं। |
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श्लोक 61: तब भगवान् ब्रह्मा ने उस ब्रह्म (परम सत्य) को जो अद्वय है, ज्ञान से पूर्ण है और असीम है ग्वालों के परिवार में बालक-वेश धारण करके पहले की ही तरह हाथ में भोजन का कौर लिए बछड़ों को तथा अपने ग्वालमित्रों को खोजते हुए एकान्त में खड़े देखा। |
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श्लोक 62: यह देख कर ब्रह्मा तुरन्त अपने वाहन हंस से नीचे उतरे और भूमि पर सोने के दण्ड के समान गिर कर भगवान् कृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श अपने सिर में धारण किये हुए चारों मुकुटों के अग्रभागों (सरों) से किया। उन्होंने नमस्कार करने के बाद अपने हर्ष-अश्रुओं के जल से कृष्ण के चरणकमलों को नहला दिया। |
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श्लोक 63: काफी देर तक भगवान् कृष्ण के चरणकमलों पर बारम्बार उठते हुए और फिर नमस्कार करते हुए ब्रह्मा ने भगवान् की उस महानता का पुन: पुन: स्मरण किया जिसे उन्होंने अभी अभी देखा था। |
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श्लोक 64: तब धीरे-धीरे उठते हुए और अपनी दोनों आँखें पोंछते हुए ब्रह्मा ने मुकुन्द की ओर देखा। फिर अपना सिर नीचे झुकाये, मन को एकाग्र किये तथा कंपित शरीर से वे लडख़ड़ाती वाणी से विनयपूर्वक भगवान् कृष्ण की प्रशंसा करने लगे। |
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