सपदि—तुरन्त; एव—निस्सन्देह; अभित:—चारों ओर; पश्यन्—देखते हुए; दिश:—दिशाओं में; अपश्यत्—ब्रह्मा ने देखा; पुर:-स्थितम्—सामने स्थित; वृन्दावनम्—वृन्दावन; जन-आजीव्य-द्रुम-आकीर्णम्—वृक्षों से पूरित, जो निवासियों की जीविका के साधन थे; समा-प्रियम्—और जो सारी ऋतुओं में समान रूप से सुहावने थे ।.
अनुवाद
तब सारी दिशाओं में देखने पर भगवान् ब्रह्मा ने तुरन्त अपने समक्ष वृन्दावन देखा जो उन वृक्षों से पूरित था, जो निवासियों की जीविका के साधन थे और सारी ऋतुओं में समान रूप से प्रिय लगने वाले थे।
तात्पर्य
जनजीव्यद्रुमाकीर्णम्—वृक्ष तथा वनस्पतियाँ अनिवार्य हैं और वे सभी ऋतुओं में सुख देने वाली होती हैं। वृन्दावन में ऐसी ही व्यवस्था है। ऐसा नहीं है कि वृक्ष एक ऋतु में सुहावने लगें और दूसरी ऋतु में न लगें, प्रत्युत वे समस्त
ऋतु-परिवर्तनों में सुहावने लगने वाले हैं। वृक्ष तथा वनस्पति हर एक के लिए वास्तविक जीविका के साधन हो सकते हैं। सर्वकामदुघामही (भागवत १.१०.४)। वृक्ष तथा वनस्पति जीवन के वास्तविक साधन प्रदान करते हैं, उद्योग नहीं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥