तद् राजेन्द्र यथा स्नेह: स्वस्वकात्मनि देहिनाम् ।
न तथा ममतालम्बिपुत्रवित्तगृहादिषु ॥ ५१ ॥
शब्दार्थ
तत्—अतएव; राज-इन्द्र—हे राजाओं में श्रेष्ठ; यथा—जिस तरह; स्नेह:—स्नेह; स्व-स्वक—प्रत्येक व्यक्ति की; आत्मनि— आत्मा के लिए; देहिनाम्—देहधारी प्राणियों के; न—नहीं; तथा—उसी तरह; ममता-आलम्बि—उसके लिए जो अपने को अपनी वस्तुओं के रूप में मानता है; पुत्र—पुत्र; वित्त—धन; गृह—घर; आदिषु—इत्यादि में ।.
अनुवाद
अतएव इसीलिए हे राजाओं में श्रेष्ठ, देहधारी जीव आत्मकेन्द्रित होता है। वह सन्तान, धन तथा घर इत्यादि वस्तुओं की अपेक्षा अपने शरीर तथा अपनी ओर अधिक आसक्त होता है।
तात्पर्य
अब सारे विश्व में यह प्रचलन हो गया है कि यदि माता को किसी सन्तान को जन्म देने में असुविधा होती है, तो वह अपने गर्भ के भीतर ही उस सन्तान को मार डालती है। इसी तरह बड़े होने पर सन्तानें अपनी सुविधा के लिए वृद्ध माता-पिता को घर में न रखकर अनाथालयों में रख देती हैं। ये तथा अन्य सैकड़ों उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि लोग सामान्यतया
अपने शरीर तथा अपनी ओर अधिक अनुरक्त रहते हैं क्योंकि ये “अहंभाव” के सूचक हैं जबकि परिवार तथा अन्य वस्तुएँ “ममत्व” की सूचक हैं। यद्यपि बद्धजीव अपने समाज, परिवार इत्यादि के प्रति प्रेम पर बहुत गर्व का अनुभव करते हैं किन्तु वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक बद्ध आत्मा स्थूल या सूक्ष्म स्वार्थ के स्तर पर ही कर्म करता है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥