ज्ञानविज्ञाननीधये ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥ ४० ॥
शब्दार्थ
ज्ञान—चेतना; विज्ञान—तथा आध्यात्मिक शक्ति के; निधये—सागर का; ब्रह्मणे—परब्रह्म को; अनन्त-शक्तये—असीम शक्तिमान को; अगुणाय—द्रव्य के गुणों से न प्रभावित होनेवाले को; अविकाराय—भौतिक विकार न होनेवाले को; नम:— नमस्कार; ते—आपको; प्राकृताय—प्रकृति के आदि संचालक; च—तथा ।.
अनुवाद
हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं। आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति के आगार हैं और अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं। यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतया मुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।
तात्पर्य
जो लोग अपने को बौद्धिक, दार्शनिक या मिलनसार मानते हैं उन्हें यह ध्यानपूर्वक जान लेना चाहिए कि परम सत्य या भगवान् समस्त ज्ञान तथा चेतना के सागर हैं। अतएव भगवान् की शरण जाने का अर्थ यह नहीं है कि अपनी मिलनसारी को त्याग
दिया जाय। प्रत्युत इससे तो मनुष्य मिलनसार तर्कपूर्ण ज्ञान के सागर में लीन होता है। भगवान् समस्त ज्ञान तथा विज्ञान की सिद्धि हैं। केवल ईर्ष्यालु तथा क्षुद्राशय व्यक्ति ही इस स्पष्ट बात से इनकार करेंगे।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥