“यदि गरुड़ ने फिर कभी इस सरोवर में घुसकर मछलियाँ खाईं तो वह तुरन्त अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है।”
तात्पर्य
इस प्रसंग में आचार्यों की व्याख्या यह है कि सौभरि मुनि ने मछली के प्रति भौतिक अनुरक्ति एवं स्नेह के कारण, स्थिति पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार नहीं किया। श्रीमद्भागवत के नवें स्कंध में इसी अपराध के कारण उनका पतन दिखलाया गया है। मिथ्या दम्भ के कारण सौभरि मुनि की तपोशक्ति जाती रही और इसी के साथ उनका आध्यात्मिक सौन्दर्य तथा सुख भी। जब गरुड़ यमुना नदी में आया तो सौभरि मुनि ने सोचा, “वह भले ही भगवान् का निजी पार्षद क्यों न हो मैं उसे शाप देकर रहूँगा और यदि मेरे आदेश का पालन नहीं करेगा तो मार भी डालूँगा।” किसी प्रतिष्ठित वैष्णव के विरुद्ध ऐसा आक्रामक रवैया जीवन में किसी के भी पवित्र पद को निस्सन्देह विनष्ट कर देगा।
नवें स्कन्ध में बतलाया गया है कि सौभरि मुनि ने अनेक सुन्दर स्त्रियों से विवाह किया और उनकी संगति से भारी कष्ट सहे। किन्तु चूँकि उन्होंने वृन्दावन में यमुना की शरण ले रखी थी इसलिए उन्हें ख्याति प्राप्त हो गई और अन्त में उनका उद्धार हो गया।
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