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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 17: कालिय का इतिहास  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  10.17.22 
तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकस: ।
कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तत्पश्चात्; उत्थाय—जगकर; सम्भ्रान्ता:—विक्षुब्ध; दह्यमाना:—जलने जा रहे; व्रज-ओकस:—व्रज के लोग; कृष्णम्— कृष्ण के पास; ययु:—गये; ते—वे; शरणम्—शरण के लिए; माया—अपनी शक्ति से; मनुजम्—मनुष्य की भाँति प्रकट होनेवाले; ईश्वरम्—ईश्वर को ।.
 
अनुवाद
 
 तब उन्हें जलाने जा रही विशाल अग्नि से अत्यधिक विचलित होकर वृन्दावनवासी जग पड़े। उन्होंने दौडक़र भगवान् कृष्ण की शरण ली जो आध्यात्मिक शक्ति से सामान्य मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे।
 
तात्पर्य
 श्रुति या वैदिक मंत्र कहते हैं—स्वरूपभूतया नित्य-शक्त्या मायाख्यया—भगवान् की शाश्वत शक्ति जिसका नाम माया है उनके आदि रूप में निहित है। इस तरह भगवान् के शाश्वत आध्यात्मिक शरीर में असीम शक्ति रहती है, जो परम सत्य की सर्वज्ञ इच्छा के अनुसार सारे जगत का बिना प्रयास संचालन करती है। वृन्दावनवासियों ने यह सोचते हुए कृष्ण की शरण ली कि यह वरप्राप्त बालक अवश्य ही हमें बचाने के लिए ईश्वर द्वारा शक्तिप्रदत्त होगा। उन्होंने कृष्ण के जन्मदिवस पर गर्गमुनि द्वारा कहे गये वचनों का स्मरण किया—अनेन सर्वदुर्गाणि यूयम् अञ्जस्तरिष्यथ—उनके बल पर आप सारे अवरोधों को पार कर सकेंगे (भागवत १०.८.१६)। इसलिए कृष्ण पर पूर्ण विश्वास रखनेवाले वृन्दावनवासियों ने इस आशा के साथ कृष्ण की शरण ग्रहण की कि वे दावाग्नि से होने वाली बरबादी से बचाये जा सकेंगे।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥