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श्लोक |
तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रिय: ।
विजिघांसुर्महावेग: कालियं समुपाद्रवत् ॥ ५ ॥ |
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शब्दार्थ |
तत्—वह; श्रुत्वा—सुनकर; कुपित:—क्रुद्ध; राजन्—हे राजा; भगवान्—अत्यन्त शक्तिशाली गरुड़; भगवत्-प्रिय:—भगवान् का प्रिय भक्त; विजिघांसु:—मारने की इच्छा से; महा-वेग:—फुर्ती से; कालियम्—कालिय की ओर; समुपाद्रवत्—दौड़ा ।. |
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अनुवाद |
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हे राजन्, जब भगवान् के अत्यन्त प्रिय, परम शक्तिशाली गरुड़ ने यह सुना तो वह क्रुद्ध हो उठा। वह कालिय को मार डालने के लिए उसकी ओर तेजी से झपटा। |
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तात्पर्य |
श्रील सनातन गोस्वामी बतलाते हैं कि महावेग शब्द इस बात का |
सूचक है कि गरुड़ की अत्यधिक गति को कोई नहीं रोक सकता। |
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