श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 17: कालिय का इतिहास  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  10.17.6 
तमापतन्तं तरसा विषायुध:
प्रत्यभ्ययादुत्थितनैकमस्तक: ।
दद्भ‍ि: सुपर्णं व्यदशद् ददायुध:
करालजिह्वोच्छ्वसितोग्रलोचन: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसपर; आपतन्तम्—आक्रमण करता हुआ गरुड़; तरसा—तेजी से; विष—विषैले; आयुध:—हथियार लिये हुए; प्रति— की ओर; अभ्ययात्—दौड़ा; उत्थित—उठाया; न एक—अनेक; मस्तक:—अपने सिर; दद्भि:—विषैले दाँतों से; सुपर्णम्—गरुड़ को; व्यदशत्—काट लिया; दत्-आयुध:—दाँतरूपी हथियारों से; कराल—भयावनी; जिह्वा—जीभ; उच्छ्वसित—फैला दिया; उग्र—तथा भीषण; लोचन:—आँखें ।.
 
अनुवाद
 
 ज्योंही गरुड़ तेजी से कालिय पर झपटा त्योंही विष के हथियार से लैस उसने वार करने के लिए अपने अनेक सिर उठा लिये। अपनी भयावनी जीभें दिखलाते और अपनी उग्र आँखें फैलाते हुए उसने अपने विष-दत्त हथियारों से गरुड़ को काट लिया।
 
तात्पर्य
 आचार्यों का कहना है कि कालिय ने विष वमन करके शत्रु पर विष आयुध का इस्तेमाल दूर से और अपने भयावने दाँतों से डसकर निकट से किया।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥