श्रील सनातन गोस्वामी ने श्री हरिवंश (विष्णु पर्व ११.१८-२२) से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें वटवृक्ष का वर्णन हुआ है : ददर्श विपुलोदग्रशाखिनं शाखिनां वरम्। स्थितं धरण्यां मेघाभं निबिडं दलसञ्चयै ॥
गगनार्धोच्छ्रिताकारं पर्वताभोगधारिणम् ।
नीलचित्राङ्गवर्णैश्च सेवितं बहुभि: खगै ॥
फलै प्रवालैश्च घनै सेन्द्रचापघनोपमम्।
भवनाकारविटपं लतापुष्प सुमंडितम् ॥
विशालमूलावनतं पावनाम्भोदधारिणम्।
आधिपत्यमिवान्येषां तस्य देशस्य शाखिनाम् ॥
कुर्वाणं शुभकर्माणं निरावर्षमनातपम्।
न्यग्रोधं पर्वताग्राभं भाण्डीरं नाम नामत: ॥
“उन्होंने सबसे बढिय़ा उस वृक्ष को देखा जिसमें अनेक लम्बी लम्बी शाखाएँ थीं। अपनी घनी पत्तियों के आच्छादन से वह ऐसा लगता था मानो पृथ्वी पर कोई बादल बैठा हो। इसका स्वरूप इतना विराट था कि यह आधे आकाश को ढके हुए पर्वत के समान लग रहा था। उस विशाल वृक्षमें नीले पंख वाले अनेक सुन्दर पक्षी आते थे जिससे यह वृक्ष अपने सघन फलों तथा पत्तियों के कारण उस बादल के समान प्रतीत होता था जिसमें इन्द्रधनुष उगा हो या कोई घर हो जिसे लताओं तथा पुष्पों से सजाया गया हो। इसकी चौड़ी जड़ें नीचे की ओर फैल रही थीं और यह अपने ऊपर पवित्र बादलों को धारण किये हुए था। वह वटवृक्ष आसपास के अन्य वृक्षों का स्वामी तुल्य था क्योंकि यह वर्षा तथा धूप को दूर रखने का सर्वमंगलमय कार्य करता था। यह न्यग्रोध, जिसका नाम भाण्डीर था, एक विशाल पर्वत की चोटी जैसा लगता था।”