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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 18: भगवान् बलराम द्वारा प्रलम्बासुर का वध  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  10.18.5 
सरित्सर:प्रस्रवणोर्मिवायुना
कह्लारकुञ्जोत्पलरेणुहारिणा ।
न विद्यते यत्र वनौकसां दवो
निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
सरित्—नदियों; सर:—झीलों का; प्रस्रवण—धाराओं का (स्पर्श करके); ऊर्मि—तथा लहरें; वायुना—वायु द्वारा; कह्लार- कञ्ज-उत्पल—कह्लार, कंज तथा उत्पल (कमलों) के; रेणु—पराग-कण; हारिणा—ले जाते हुए; न विद्यते—नहीं था; यत्र— जिसमें; वन-ओकसाम्—जंगल के निवासियों के लिए; दव:—तपती धूप; निदाघ—ग्रीष्म ऋतु की; वह्नि—दावाग्नि से; अर्क—तथा सूर्य से; भव:—उत्पन्न; अति-शाद्वले—जहाँ प्रचुर हरी भरी घास थी ।.
 
अनुवाद
 
 सरोवरों की लहरों तथा बहती हुई नदियों का स्पर्श करती हुई अनेक प्रकार के कमलों तथा कमलिनियों के पराग-कण अपने साथ लेती हुई वायु सम्पूर्ण वृन्दावन को शीतल बनाती थी। इस तरह वहाँ के निवासियों को ग्रीष्म की जलती धूप तथा मौसमी दावाग्नियों से उत्पन्न गर्मी से कष्ट नहीं उठाना पड़ता था। निस्सन्देह वृन्दावन ताजी हरीभरी घास से भरापुरा था।
 
 
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