श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; क्रीडा—खेल में; आसक्तेषु—पूरी तरह लीन; गोपेषु—ग्वालबालों में; तत्- गाव:—उनकी गौवें; दूर-चारिणी:—दूर दूर तक घूमने वाली; स्वैरम्—स्वतंत्र रूप से; चरन्त्य:—चरती हुई; विविशु:—घुसीं; तृण—घास के; लोभेन—लालच से; गह्वरम्—घने जंगल में ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब ग्वालबाल खेलने में पूरी तरह मग्न थे तो उनकी गौवें दूर चली गईं। अधिक घास के लोभ में तथा कोई उनकी देखभाल करनेवाला न होने से वे घने जंगल में घुस गईं।
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