एक दिन सारे ग्वालबाल खेल में मग्न हो गये तो गौवें घने जंगल में चरने निकल गईं। सहसा दावाग्नि भडक़ उठी तो लपटों से बचने के लिए गौवों ने मूँज के कुंज में जाकर शरण ली। जब ग्वालबालों को अपनी गाएँ न दिखाई दीं, तब वे उनके पदचिह्नों और उनसे रौंदने से या दाँतों से तोड़े जाने से घास के तिनकों तथा दूसरे पौधों से बनी लकीर का पीछा करते हुए तलाश में निकल पड़े। अन्त में गौवें उन्हें मुंजवन में मिलीं और उन्होंने उन्हें वहाँ से हटा लिया। किन्तु तब तक आग जोर पकड़ चुकी थी और उससे गौवों तथा बालकों को खतरा पैदा हो गया था। इस तरह बालकों ने योगेश्वर कृष्ण की शरण ली। कृष्ण ने उनसे आँखें मूँदने को कहा। जब उन्होंने ऐसा किया, तो श्रीकृष्ण ने क्षण-भर में उस भयंकर दावाग्नि को निगल लिया और उन सबों को भाण्डीर वृक्ष के पास ले आये जिसका उल्लेख पिछले अध्याय में किया गया है। इस योगशक्ति के अद्भुत चमत्कार को देखकर ग्वालबालों ने सोचा कि कृष्ण अवश्य ही देवता हैं अत: वे उनकी प्रशंसा करने लगे। इसके बाद सभी लोग घर लौट आये। |