ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव। गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्ति-लता-बीज ॥ (चै.च. मध्य १९.१५१) गुरु तथा कृष्ण की दया से ही मनुष्य को भक्तिलता बीज प्राप्त हो सकता है। गुरु का कर्तव्य है कि काल, परिस्थिति तथा पात्र के अनुसार साधनों की खोज करे जिससे मनुष्य को भक्ति करने के लिए प्रेरित किया जा सके क्योंकि भगवद्धाम वापस जाने वाले व्यक्ति से कृष्ण यह भक्ति स्वीकार करते हैं। भाग्यवान व्यक्ति सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करने के बाद इस भौतिक जगत में ऐसे गुरु या आचार्य की शरण खोजता है, जो भक्त को परिस्थिति के अनुसार सेवा करने की उपयुक्त विधियों का प्रशिक्षण दे सके जिससे भगवान् उसकी सेवा स्वीकार कर लें। इससे पात्र को अपने चरम गन्तव्य तक पहुँचने में सुविधा होती है। अत: आचार्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे साधन खोजे जिससे भक्त शास्त्रोक्त विधि से भक्ति कर सके। उदाहरणार्थ, रूप गोस्वामी ने आगे आने वाले भक्तों की सहायता करने के लिए ‘भक्तिरसामृतसिन्धु’ जैसे ग्रंथ का प्रकाशन किया। इस तरह आचार्यों का कर्तव्य है कि वे भावी पात्रों को भक्ति करने में सहायक पुस्तकें प्रकाशित करें जिससे लोग परमेश्वर के कृपा से भगवद्धाम वापस जा सकें। हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन में इसी मार्ग की संस्तुति की जाती है और इसीका पालन किया जाता है। इस तरह भक्तों को सलाह दी गई है कि वे चार पापकर्मों से बचें। ये हैं—अवैध यौन, नशा, मांसाहार तथा जुआ। उन्हें प्रति दिन सोलह मालाएँ जप करने की भी सलाह दी गई है। ये प्रामाणिक आदेश हैं। चूँकि पाश्चात्य देशों में सतत कीर्तन संभव नहीं है अत: बनावटी तरीके से हरिदास ठाकुर की नकल नहीं करनी चाहिए किन्तु इसी विधि का पालन करना चाहिए। जो लोग अधिकारियों द्वारा प्रकाशित विविध पुस्तकों में संस्तुत विधि-विधानों का पालन करते हैं, कृष्ण उन्हें भक्त के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। अज्ञान के सागर को पार करने के लिए भगवान् के चरणकमलों की नौका बनाने की उपयुक्त विधि आचार्य द्वारा बतलाई जाती है और यदि पालनकर्ता इस विधि का दृढ़ता से पालन करता है, तो वह भगवद्कृपा से गन्तव्य तक अवश्य पहुँच जाता है। यह विधि आचार्य सम्प्रदाय कहलाती है। इसीलिए कहा गया है कि सम्प्रदायविहीना येमन्त्रास्ते निष्फला मता: (पद्मपुराण )। आचार्य-सम्प्रदाय नितान्त प्रामाणिक है। इसलिए इस सम्प्रदाय को स्वीकार करना चाहिए अन्यथा सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा। इसीलिए श्रील नरोत्तमदास ने गीत गाया है— ताँदेर चरण सेवि भक्त सने वास। जनमे जनमे हय, एइ अभिलाष ॥ मनुष्य को चाहिए कि आचार्य के चरणकमलों की सेवा करे और भक्तों के समाज में रहे। तब भवसागर पार करने का प्रयास सार्थक होगा। |