हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  10.20.19 
न रराजोडुपश्छन्न: स्वज्योत्स्‍नाराजितैर्घनै: ।
अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
न रराज—चमका नहीं; उडुप:—चन्द्रमा; छन्न:—ढका हुआ; स्व-ज्योत्स्ना—अपनी चाँदनी से; राजितै:—प्रकाशित; घनै:— बादलों से; अहम्-मत्या—मिथ्या अहंकार से; भासितया—प्रकाशित; स्व-भासा—अपनी ही द्युति से; पुरुष:—जीव; यथा— जिस तरह ।.
 
अनुवाद
 
 वर्षा ऋतु में बादलों से ढके रहने के कारण चन्द्रमा के प्रकट होने में व्यवधान पड़ता था और यही बादल चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशित होते थे। इसी प्रकार इस भौतिक जगत में मिथ्या अहंकार के आवरण से जीव प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हो पाता जबकि वह स्वयं शुद्ध आत्मा की चेतना से प्रकाशित होता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर दिया गया दृष्टान्त अत्युत्तम है। वर्षा ऋतु में हम आकाश में चन्द्रमा को नहीं देख सकते क्योंकि वह बादलों से ढका रहता है। किन्तु ये बादल चन्द्रमा की ही किरणों के प्रकाश से चमकीले बनते हैं। इसी प्रकार इस बद्ध जगत में हम प्रत्यक्षत: आत्मा को नहीं देख पाते क्योंकि हमारी चेतना मिथ्या अहंकार से आवृत रहती है, जो भौतिक जगत और भौतिक शरीर से एक मिथ्या पहचान है। तो भी आत्मा की निजी चेतना से ही मिथ्या अहंकार प्रकाशित होता है।

जैसाकि गीता में वर्णन हुआ है, आत्मा की शक्ति चेतना है और जब यह चेतना मिथ्या अहंकार के पर्दे से होकर प्रकट होती है, तो वह धुँधली भौतिक चेतना के रूप में प्रकट होती है, जिसमें आत्मा या ईश्वर की प्रत्यक्ष दृष्टि नहीं होती। भौतिक जगत में बड़े से बड़े दार्शनिक परम सत्य के विषय में बोलते समय अंतत: धुँधले द्वैत का सहारा लेते हैं जिस प्रकार कि बादल से ढका आकाश चन्द्रमा की चाँदनी को धुँधले तथा अप्रत्यक्ष रूप में ही प्रदर्शित करता है।

भौतिक जीवन में हमारा मिथ्या अहंकार प्राय: उत्साहप्रद, आशापूर्ण तथा विभिन्न सांसारिक मामलों से परिचित-सा लगता है और ऐसी चेतना ही हमें इस जगत में आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करती है। किन्तु सचाई तो यह है कि हम अपनी मूल शुद्ध चेतना के, जो कि कृष्णभावनामृत अर्थात् आत्मा और ईश्वर का सीधा निरूपण है, धुँधले प्रतिबिम्ब का ही अनुभव करते हैं। इसकी परवाह न करते हुए कि यह मिथ्या अहंकार हमारी असली आध्यात्मिक चेतना को जो पूर्णरूपेण ज्योतिर्मय और आनंदमय है मन्द बनाता है। हम त्रुटिवश सोचते हैं कि भौतिक चेतना ज्ञान तथा आनन्द से ओतप्रोत है। इसकी तुलना इस विचार से की जा सकती है कि प्रकाशवान बादल रात में आकाश को प्रकाशित करते हैं जबकि तथ्य यह है कि चाँदनी आकाश को प्रकाशित करती है और बादल तो चाँदनी के मार्ग में बाधक बनते हैं और उसे मन्द बनाते हैं। बादल इसलिए प्रकाशमय प्रतीत होते हैं क्योंकि वे चन्द्रमा की चमकीली किरणों को छानते तथा अवरुद्ध करते हैं। इसी प्रकार कभी कभी भौतिक चेतना आनन्दमय या प्रकाशयुक्त प्रतीत होती है क्योंकि यह आत्मा से आनेवाली मूल आनन्दमय तथा प्रकाशित चेतना को रोक या छान रही होती है। यदि हम इस श्लोक में दिये हुए कुशल दृष्टान्त को समझ सकें तो सरलता से कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ सकते हैं।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥