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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  10.20.21 
पीत्वाप: पादपा: पद्भ‍िरासन्नानात्ममूर्तय: ।
प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
पीत्वा—पीकर; आप:—जल; पाद-पा:—वृक्ष; पद्भि:—अपने पाँवों से; आसन्—धारण कर लिया; नाना—विविध; आत्म- मूर्तय:—शारीरिक स्वरूप; प्राक्—पहले; क्षामा:—क्षीण; तपसा—तपस्या से; श्रान्ता:—थके हुए; यथा—जिस तरह; काम- अनुसेवया—प्राप्त वांछित फलों को भोगकर के ।.
 
अनुवाद
 
 जो वृक्ष दुबले हो गए थे तथा सूख गये थे उनके शरीर के विभिन्न अंग अपनी जड़ों (पाँवों) से वर्षा का नया जल पाकर लहलहा उठे। इसी तरह तपस्या के कारण जिसका शरीर पतला और दुर्बल हो जाता है, वह पुन: उस तपस्या के माध्यम से प्राप्त भौतिक वस्तुओं का भोग करके स्वस्थ शरीरवाला दिखने लगता है।
 
तात्पर्य
 पाद शब्द का अर्थ है “पाँव” तथा पा का अर्थ है “पीना”। वृक्ष पादप कहलाते हैं क्योंकि वे अपनी जड़ों से जल पीते हैं, जो उनके पैरों के तुल्य हैं। वर्षा का नवीन जल पीकर वृन्दावन के वृक्षों में नई पत्तियाँ, कलियाँ तथा फूल आने लगे और उनमें नवीन वृद्धि होने लगी। इसी तरह भौतिकतावादी व्यक्ति प्राय: अपनी अभीप्सित वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए तपस्या करते हैं। उदाहरणार्थ, अमरीका के राजनैतिक व्यक्ति अपने चुनाव के अभियान के समय देहातों की यात्रा करते समय कठोर तपस्या करते हैं। इसी तरह व्यापारी लोग भी अपने व्यापार को सफल बनाने के लिए निजी सुख- सुविधा को तिलांजलि दे देते हैं। ऐसे तपस्वी व्यक्ति तपस्या का फल प्राप्त करने पर पुन: स्वस्थ तथा संतुष्ट हो जाते हैं जिस तरह वृक्ष शुष्क तथा तप्त ग्रीष्म की तपस्या सहन करने के बाद वर्षा का जल उत्सुकता से पीकर बढऩे लगते हैं।
 
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