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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 30-31
 
 
श्लोक  10.20.30-31 
शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।
तृप्तान् वृषान् वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमा: ॥ ३० ॥
प्रावृट्‍‍श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वकालसुखावहाम् ।
भगवान् पूजयां चक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
शाद्वल—घास के मैदान के; उपरि—ऊपर; संविश्य—बैठकर; चर्वत:—चरती हुई; मीलित—बन्द; ईक्षणान्—आँखों को; तृप्तान्—संतुष्ट; वृषान्—साँड़ों को; वत्सतरान्—बछड़ों को; गा:—गौवों को; —और; स्व—अपने अपने; ऊध:—थनों के; भर—भार से; श्रमा:—थकी; प्रावृट्—वर्षा ऋतु का; श्रियम्—ऐश्वर्य; —तथा; ताम्—उसको; वीक्ष्य—देखकर; सर्व- काल—सदैव; सुख—आनन्द; आवहाम्—देते हुए; भगवान्—भगवान् ने; पूजयाम् चक्रे—सम्मान किया; आत्म-शक्ति— अपनी अन्तरंगा शक्ति से; उपबृंहिताम्—विस्तार किया ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् कृष्ण ने हरी घास पर बैठे और आँखें बन्द किये चरते हुए संतुष्ट साँड़ों, बछड़ों तथा गौवों पर नजर डाली और देखा कि गौवें अपने दूध से भरे भारी थनों के भार से थक गई हैं। इस तरह परम आनन्द के शाश्वत स्रोत वृन्दावन की वर्षा ऋतु के सौन्दर्य और ऐश्वर्य का निरीक्षण करते हुए भगवान् ने उस ऋतु को नमस्कार किया जो उन्हीं की अन्तरंगा शक्ति का विस्तार थी।
 
तात्पर्य
 वृन्दावन में वर्षा ऋतु का अनुपम सौन्दर्य श्रीकृष्ण के आनन्द-विहार में वृद्धि करने के हेतु है। इसलिए भगवान् के प्रेमालापों के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए उनकी अन्तरंगा शक्ति इस अध्याय में वर्णित सारे प्रबन्ध करती है।
 
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