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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  10.20.33 
शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययु: ।
भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
शरदा—शरद ऋतु के प्रभाव से; नीरज—कमल के फूल; उत्पत्त्या—फिर से उत्पन्न करनेवाला; नीराणि—जल समूह; प्रकृतिम्—अपनी प्राकृतिक अवस्था में (स्वच्छ); ययु:—हो गये; भ्रष्टानाम्—पतितों के; इव—सदृश; चेतांसि—मन; पुन:— एक बार फिर; योग—भक्ति के; निषेवया—अभ्यास से ।.
 
अनुवाद
 
 कमलपुष्पों को पुन: उत्पन्न करनेवाली शरद ऋतु ने विविध जलाशयों को पूर्ववत् स्वच्छ (निर्मल) बना दिया जिस तरह कि भक्तियोग पतित योगियों के मनों को पुन: इस ओर लौटने पर शुद्ध बनाता है।
 
 
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